ख़ुद की तलाश
मैं खुद को कब से ढूंढ रहा हूँ,
हर राह पे, हर मोड़ पे रुक रहा हूँ।
पर जो दिखे नहीं, वो मैं कैसे जानूं?
जब तुम मिलोगे, तो मैं शायद खुद को पहचानूं।
तुम ही तो मैं हूँ, मैं बस यह समझा हूँ,
तेरे बिना मैं बस अधूरा सा सपना हूँ।
हर आईना झूठा लगता है मुझे,
जब तक उसमें “दिकु” न दिखे मुझे।
ना मैं अलग, ना तू जुदा,
हम ही हैं वो एक सदा।
जब तू लौटेगी, तब ही शायद,
“प्रेम” को सब पहचान पाएंगे,
वरना मैं तो बस एक साया हूँ,
जिसे कभी कोई नहीं जान पाएंगे।
प्रेम ठक्कर “दिकुप्रेमी”