मोमबत्ती
अंधेरे में भी जलती रही,
ख़ामोशी में भी कहती रही।
बूँद-बूँद पिघल कर भी,
किसी की राह तकती रही।
थी नाजुक, मगर कमज़ोर नहीं,
हर तूफ़ान में भी डरी नहीं।
अपने अंत की परवाह छोड़,
किसी के लिए उजाला बनती रही।
वो मोमबत्ती…
जैसे मेरा प्रेम दिकु के लिए,
जो हर मोड़ पर खुद को मिटा कर,
उसकी ख़ुशी की रोशनी बनता गया।
हर बार जलते हुए भी मुस्कराया,
हर पिघलन में बस उसका चेहरा नजर आया।
लोग कहते हैं— “ये पागलपन है,”
मैं कहता हूँ— “ये पागलपन नही, ये दिकुप्रेम है।”
प्रेम ठक्कर “दिकुप्रेमी”
सूरत, गुजरात