॥1॥
अलख / बलराम अग्रवाल
वह एक युवा संन्यासी था। उसके दायें हाथ में काला-सा एक खप्पर था और बायें कंधे पर कपड़े की लम्बी-सी एक थैली। गाँव में अधिकतर घर अनुसूचित और पिछड़ी जाति वाले मजदूर-पेशा लोगों के थे।
वह पहली बार इस गाँव में घुसा था। भिक्षा के लिए उसने दायीं ओर वाले, शुरुआती सिर्फ तीन ही घरों पर दस्तक दी और जो मिला, लेकर चल दिया।
मोहल्ले में बायीं ओर वाले एक मकान के बाहर खड़ी एक वृद्धा ने उसे पहले मकान पर दस्तक देते देख लिया था। एक कटोरीभर आटा ले आने के लिए वह तुरन्त अन्दर चली गयी। जब तक भीतर से बाहर आयी, संन्यासी वापिस जाने को मुड़ चुका था। उसे जाते देख, वृद्धा ने उसे पुकारा—“बाबाजी, इस गरीब पर भी कुछ कृपा कर जाते।”
संन्यासी कुछ पल रुका; फिर अपने स्थान पर खड़े-खड़े ही बोला, “माफ करना माई, मेरे गुरु का आदेश है कि एक दिन में मैं सिर्फ तीन ही दरों पर प्रभु-नाम का स्मरण करूँ। जो कुछ मिले खा लूँ, न मिले तो भूखा सो जाऊँ!”
यह सुन वृद्धा कुछ पल स्तब्ध रह गयी। वह अनुसूचित जाति से है, संन्यासी ने यह जानकर तो अपनी ओर से बहाना नहीं बना दिया है—उसने सोचा। यह सोचते हुए उसके हाथ में पकड़ी कटोरी एकबारगी थरथरा-सी गयी। उसने कुछ कहना चाहा, पर शब्द नहीं निकले।
वहाँ से चलकर संन्यासी, गाँव से बाहर एक पीपल के नीचे जा बैठा। उसने आँखें मूँदीं, मानो आत्ममंथन कर रहा हो। त्यक्त-सी खड़ी रह गई वृद्धा का उदास चेहरा बार-बार उसके मस्तिष्क में आ घूमता। उसकी आँखों की पीड़ा ने संन्यासी के मन में हलचल पैदा कर दी थी।
तभी, कुछ बच्चे जो आसपास अपने पशुओं को चरा रहे थे, समीप आ, उसे घेरकर खड़े हो गए।
संन्यासी ने आँखें खोलीं। गहरी साँस ली और मुस्कुराकर बच्चों से पूछा, “तुम लोग इस समय यहाँ क्या कर रहे हो?”
“हम अपने-अपने पशुओं को चराने के लिए यहाँ आते हैं।” सबने एक स्वर में बताया।
“पढ़ने के लिए नहीं जाते?” संन्यासी ने पूछा।
“इस गाँव में कोई स्कूल नहीं है बाबाजी!” एक बालक ने कहा।
“आसपास किसी दूसरे गाँव में जाया करो!”
“आसपास के किसी भी गाँव में स्कूल नहीं है।” एक अन्य बालक ने बताया, “जिस गाँव में सरकारी स्कूल है, उसमें कोई मास्टर नहीं है!”
यह सुन संन्यासी जहाँ का तहाँ बैठा रह गया। कुछ देर सोचता रहा। फिर, चारों ओर आ खड़े हुए बालकों की ओर देखते हुए उसने अपने आप से कहा—“आज, इसी समय से मैं अपने गुरु के आदेश के दो शब्दों का एक-एक अक्षर को बदल रहा हूँ। ‘भिक्षा’ को ‘शिक्षा’ और ‘लेना’ को ‘देना’ कर रहा हूँ। अब अलख सिर्फ दरवाज़े पर नहीं, दिल और दिमाग पर जगानी शुरू करूँगा!” फिर बच्चों से बोला, “अगर मैं यहीं पर तुम्हें पढ़ाना शुरू करूँ, तो क्या तुम पढ़ोगे?”
“अगर पढ़ेंगे तो ढोर कैसे चराएँगे?” एक बाल ने शंका प्रकट की।
“ढोर तो अपने आप चरते हैं! तुम थोड़े ही उनके मुँह में कुछ डालते हो।” संन्यासी ने कहा, “तुम लोग तो दिनभर उनकी निगरानी करते हो, बस!”
“पढ़ने से निगरानी में तो बाधा नहीं आयेगी न?” एक बच्चे ने पूछा।
“निगरानी के लिए मैं भी तो रहूँगा न तुम्हारे साथ।” संन्यासी ने कहा।
“तब ठीक है। हम पढ़ेंगे।” सभी ने एक स्वर में कहा।
“केवल पढ़ना नहीं, मैं तुम्हें जीवन को जीना भी सिखाऊँगा। सही ढंग से सोचने की नींव तुममें डालूँगा। तुम सब तैयार हो?”
“जी बाबाजी!” सबने उत्साह में भरकर समवेत् स्वर में कहा।
अगले दिन, गाँव की सुबह बदली हुई थी। संन्यासी सबसे पहले उसी वृद्धा के घर पर अलख जगा रहा था।
“आज से मैंने अपना नियम बदला है माई!” खप्पर में आटा ढालती वृद्धा से उसने कहा।
“क्या?” प्रसन्न मुख वृद्धा ने उससे पूछा।
“आज से मैं सिर्फ एक ही घर से खाने की वस्तु ग्रहण करूँगा।”
“बाकी दो घरों से?”
“बाकी दो घरों से बालकों के लिए एक-एक कॉपी और एक-एक कलम माँगूगा! आज कोई दे नहीं पायेगा, जानता हूँ। इसलिए कॉपी-कलम वाली भिक्षा कल से! अब चलता हूँ।” संन्यासी ने कहा और गाँव के बाहर वाले पीपल की ओर बढ़ गया।
बच्चों को पढ़ाने वाला उसका निश्चय, बच्चों के माध्यम से गत शाम को और वृद्धा के माध्यम से आज सुबह से घर-घर में पहुँच चुका था।
धीरे-धीरे वह गाँव के बाहर पीपल के नीचे की वह जगह अनौपचारिक शिक्षा का केन्द्र बन गयी। आसपास के गाँव वाले भी अपने बच्चों को वहाँ भेजने लगे। पशु चराने के लिए घर के बुजुर्ग या दूसरे लोग आने लगे। जाति की सीमाएँ धुंधली हो गईं। हर व्यक्ति जान गया कि सच्ची ‘अलख’ ज्ञान और विवेक से जागती है, केवल परंपरा निभाने से नहीं।
॥2॥
गंगा किनारे / बलराम अग्रवाल
उसका सपना था—बहती नदी के किनारे एक झोपड़ी। झोपड़ी के चारों ओर खुली जमीन। उस जमीन में अपनी पसन्द के कुछ पेड़, कुछ पौधे, कुछ साग-सब्जियाँ।
तलाश करते-करते वह एक ब्रोकर से मिला।
“इत्तेफाक से ऐसा एक प्लॉट मेरे पास है, ” ब्रोकर बोला, “आप जब चाहें चलकर देख लें।”
“आज ही चलें?” उसने पूछा। उसे डर था कि देर की तो कोई और न उसे हथिया ले।
“बिल्कुल!” ब्रोकर खुशी से उछलकर बोला। उसने तुरन्त ड्राइवर को फोन लगाया—“गाड़ी लेकर ऑफिस के सामने आ जाओ, गंगा किनारे वाली जमीन पर चलना है।”
अगले कुछ ही मिनटों में वे गंगा किनारे, छोटे-से एक खेतनुमा प्लॉट में खड़े थे।
“यह 1000 वर्ग मीटर का प्लॉट है सर!” ब्रोकर बताने लगा, “इसमें से जितना चाहें और जिधर का चाहें, उतना और उधर का हिस्सा आपको मिल जायेगा!”
“मैं इस पूरे प्लॉट को खरीदूँगा।”
“आप बहुत लकी रहेंगे सर!” यह सुनते ही ब्रोकर ने तुरन्त कहा, “वास्तु की दृष्टि से भी बहुत अच्छा प्लॉट है—हर तरफ से खुला हुआ और सामने गंगा मैया! पर, आप भले आदमी हैं इसलिए आप से कुछ छिपाऊँगा नहीं सर, इसका एक नेगेटिव पाइंट भी है !”
“नेगेटिव पाइंट! क्या?” उसने पूछा।
“आप तो देख ही रहे हैं सर कि सामने गंगा मैया हैं। भले ही यह किनारा जल से काफी ऊँचाई पर है लेकिन है तो किनारा ही! भगवान न करे, नदी, कभी अगर पूरे उफान पर आ गयी तो…!” फिर बात को सम्हालते हुए बोला, “हालाँकि पिछले पच्चीस वर्ष में तो ऐसा कभी हुआ नहीं है। फिर भी…आपको शुरू में ही बता देना मेरा फर्ज है। ब्रोकर हूँ सर, बुचर नहीं हूँ। एक खुशी की बात और बता दूँ सर, कि अगर आप तुरन्त इसे खरीदेंगे तो पूरी कीमत का दस प्रतिशत मैं आपको डिस्काउंट भी दूँगा।”
ब्रोकर की बात सुन, उसने कुछ पल सोचा। फिर, मन को पक्का करके बोला, “ठीक है, मैंने इसे खरीद लिया! आप कागज तैयार कराइए?”
प्लॉट हाथ में आते ही, उसके बीचों-बीच उसने एक कुटिया डाली। चारों ओर कुछ पौधे उगाए और कुछ सब्जियाँ। सुबह-शाम गंगा के किनारे-किनारे वह दूर तक घूमने जाता। क्यारियों में फावड़ा-खुरपी चलाता। कुर्सी-मेज डालकर बाहर ही खाना खाता। अन्दर केवल सोने के लिए जाता।
और भादों की एक रात वह हुआ, जो पिछले पच्चीस साल में कभी नहीं हुआ था।
गंगा उफान पर आ गयी। कुटिया समेत प्लॉट का करीब आधा हिस्सा बहा ले गयी। सौभाग्य से वह बच गया।
सवेरे, सपनों की दुनिया के बचे हुए हिस्से में उकड़ू बैठा वह हहराती गंगा को देख रहा था।
वह चुप था—बिलकुल चुप। भीतर कोई तूफान नहीं, बस एक गहरा शून्य था। गंगा, मेहनत से उगाये उसके पौधों को बहाकर लेजा चुकी थी। कुटिया की जगह अब केवल दलदल था। इस सबको लेकर उसके भीतर कोई गुस्सा नहीं था। कुछ भी वैसा नहीं जो भीतर कुछ तोड़ दे। एक अजीब-सी शांति थी—जैसे कुछ, बहुत ज़रूरी, समझ में आ गया हो।
उसने मिट्टी को…कीचड़ बन चुकी मिट्टी को, मुट्ठी में उठाया। यह वही मिट्टी थी, जिसमें उसने बीज बोए थे। फलों और फूलों के पौधे रौंपे थे।
उसने पुन: सामने देखा—सब कुछ लीलकर भी गंगा हँसती-उछलती-कूदती, शरारती बाला-सी ऐसे बह रही थी, जैसे उसने कुछ किया ही न हो।
वह धीरे-धीरे उठा, और एक ओर को चल पड़ा। नदी किनारे रहने का सपना गंगा-मैया की बदौलत एक ही रात में दुरुस्त हो गया था; लेकिन सवेरा होने तक भीतर जो बना, वह अब बह जाने वाला नहीं था।
वह अब चलता जा रहा था, चलता जा रहा था। समझ गया था, कि—स्थायित्व प्रकृति का स्वभाव नहीं है।
॥3॥
विटिलिगो/बलराम अग्रवाल
सवेरे उठकर लड़की ने मुँह धोया। मुँह धोकर आईने के सामने खड़ी हुई। जैसे ही उसने चेहरा देखा, उसकी आँखें ठिठक गईं। निचले होंठ के नीचे हल्का-सा एक सफेद दाग उभर आया था।
“ये क्या है?” उसके गले से स्वत: ही निकला, “रात को सोने जाने तक तो कुछ नहीं था!”
हाथ की उँगलियों से, तौलिए के छोर से, खूब रगड़कर देखा—नहीं छूटा; दाग ही था।
उस दिन वह स्कूल नहीं गयी। माँ से कह दिया—तबीयत ठीक नहीं है।
अपने आपको असहज महसूस कर वह कमरे में गयी और चादर ओढ़कर जा लेटी। खाना भी कमरे में ही मँगा लिया। माँ आईं तो उसने रोते-रोते दाग दिखा दिया।
“हे राम!” माँ के मुँह से अनायास निकला, फिर सँभलकर बोलीं, “तुम यहीं लेटी रहना! खाना-पानी मैं यहीं देकर जाती रहूँगी?”
उसने कुछ नहीं कहा। अलग-थलग सी, चुप ही रही। कुछ ही देर बाद पिता पास आकर बैठ गए। माँ ने सब-कुछ बता दिया था शायद।
“क्या बात है?” स्नेहपूर्वक उसके बालों में उँगलियाँ फिराते हुए उन्होंने पूछा।
बेटी उनकी गोद में सिर रखकर रो पड़ी। उसने झिझकते हुए कहा, “चेहरे पर दाग आ गया है पापा!…”
पिता ने उसकी ठोड़ी को ऊपर उठाया और मुस्कराकर पूछा—“बस इसीलिए सुबह से कमरे में बन्द हो?”
“हाँ!” उसने सिर हिलाया।
पिता बोले, “मैं डॉक्टर से अपाइंटमेंट लेता हूँ, तुम तैयार हो जाओ।”
उसी दिन माँ-पिता के साथ वह त्वचा विशेषज्ञ के पास गई। डॉक्टर ने बताया, “यह विटिलिगो है, शुरुआती अवस्था में है; और बिटिया अगर मजबूत रहे तो नियंत्रण सम्भव है।”
माँ-पिता ने राहत की साँस ली।
“सुनो बेटी, अगर लोग दाग देखकर कुछ कह सकते हैं, तो तुम अपने विश्वास और मेहनत से उन्हें चुप भी तो कर सकती हो!” डॉक्टर ने समझाया।
लड़की ने सहमति में गरदन हिलाई। उसी दिन से उसने अपने डर को लात मारनी शुरू कर दी। नियम से दवा लेती। हर दिन दर्पण के सामने खड़ी होती। दाग को देखती और कहती—“मैं तुझसे लड़ूँगी पापी, कमजोर थोड़े ही हूँ!”
कुछ महीनों के बाद वह इंटरस्कूल वाद-विवाद प्रतियोगिता में गई। विषय था—‘आत्मविश्वास ही असली सुंदरता है’।
नम्बर आने पर, जब वह मंच पर गई, चेहरे पर वही सफेद दाग था—बिल्कुल खुला, बिना मेकअप।
बोलने शुरू किया तो उसकी आवाज़ की चमक और धार, उससे पूर्व के अन्य वक्ताओं की चमक और धार से कहीं ज्यादा तेज थी।
उसके वक्तव्य पर समूचा हाल बार-बार तालियों की गूँज से भरता रहा। अध्यापक-अध्यापिकाओं, सहपाठियों और उनके अभिभावकों के बीच उसे खुद की अलग पहचान मिल गई।
मंच से उतरकर नीचे आयी तो पिता ने मुस्कराते हुए कहा—“तूने तो पूरे हॉल को अपने उजाले से भर दिया बेटा!”
वह माँ-पिता की बाँहों में समा-सी गयी। विटिलिगो को उसने पछाड़ दिया था।