भीष्म साहनी की कहानी : माता-विमाता

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इस बार हम पाठको के लिए प्रसिद्ध भारतीय लेखक भीष्म साहनी की कहानी पेश कर रहे है। जिन्हे हिन्दी साहित्य जगत में प्रेमचंद की परंपरा का अग्रणी लेखक माना जाता है। वामपंथी विचारधारा से जुड़े होने के साथ-साथ वे मानवीय मूल्यों को कभी आंखों से ओझल नहीं करते थे। भीष्म सानी लेखन के अलावा सहृदयता के लिए भी चिरस्मरणीय हैं। उन्होने कई प्रसिद्ध रचनाएँ लिखी थीं। उन्हें कई पुरस्कार व सम्मान प्राप्त हुए थे।

पन्द्रह डाउन गाड़ी के छूटने में दो-एक मिनट की देर थी। हरी बत्ती दी जा चुकी थी और सिगनल डाउन हो चुका था। मुसाफ़िर अपने-अपने डिब्बों में जाकर बैठ चुके थे, जब सहसा दो फटेहाल औरतों में हाथापाई होने लगी। एक औरत दूसरी की गोद में से बच्चा छीनने की कोशिश करने लगी और बच्चे वाली औरत एक हाथ से बच्चे को छाती से चिपकाए दूसरे से उस औरत के साथ जूझती हुई, गाड़ी में चढ़ जाने की कोशिश करने लगी।

“छोड़, तुझे मौत खाए, छोड़, गाड़ी छूट रही है…।”

“नहीं दूंगी, मर जाऊंगी तो भी नहीं दूंगी….।” दूसरी ने बच्चे के लिए फिर से झपटते हुए कहा।

कुछ देर पहले दोनों औरतें आपस में खड़ी बातें कर रही थीं, अभी दोनों छीना-झपटी करने लगी थीं। आस-पास के लोग देखकर हैरान हुए। तमाशबीन इकट्ठे होने लगे। प्लेटफार्म का बावर्दी हवलदार, जो नल पर पानी पीने के लिए जा रहा था, झगड़ा देखकर, छड़ी हिलाता हुआ आगे बढ़ आया।

“क्या बात है? क्या हल्ला मचा रही हो?” उसने दबदबे के साथ कहा।

हवलदार को देखकर दोनों औरतें ठिठक गईं। दोनों हांफ रही थीं और जानवरों की तरह एक-दूसरी को घूरे जा रही थीं।

दो-एक मुसाफिरों को गाड़ी पर चढ़ते देखकर बच्चे वाली औरत फिर गाड़ी की ओर लपकी, लेकिन दूसरी ने झपटकर उसे पकड़ लिया और उसे खींचती हुई फिर प्लेटफार्म के बीचोंबीच ले आई। लटकते-से अंगोंवाला, काला, दुबला-सा बच्चा औरत के कंधे से लगाकर सो रहा था। औरतों की हथापाई में उसकी पतली लम्बूतरी-सी गर्दन, कभी झटका खाकर एक ओर को लुढ़क जाती, कभी दूसरी ओर को। लेकिन फिर भी उसकी नींद नहीं टूट रही थी।

“मत हल्ला करो, क्या बात है?” हवलदार ने छड़ी हिलाते हुए चिल्लाकर कहा और अपनी पतली बेंत की छड़ी दोनों औरतों के बीच खोंसकर उन्हें छुड़ाने की कोशिश करने लगा।

जो औरत बच्चा छीनने की कोशिश कर रही थी, उसने अपनी बड़ी-बड़ी कातर आंखों से हवलदार की ओर देखा और तड़पकर बोली, “मेरा बच्चा लिए जा रही है, नहीं दूंगी मैं बच्चा….।” और फिर एक बार वह बच्चा छीनने के लिए लपकी।

“गाड़ी छूट रही है नासपिट्टी, छोड़ मुझे!” बच्चे वाली औरत ने चिल्लाकर कहा और फिर गाड़ी के डिब्बे की ओर जाने लगी। हवलदार ने आगे बढ़कर उसका रास्ता रोक लिया।

“इसका बच्चा क्यों लिए जा रही है?” हवलदार ने कड़ककर कहा।

“इसका कहां है! बच्चा मेरा है!”

“वह कहती है मेरा है, बोलो किसका बच्चा है?”

“मेरा है” दूसरी छोटी उम्र की औरत बोली और कहते ही रो पड़ी। रूखे अस्त-व्यस्त बालों के बीच उसका चेहरा तमतमा रहा था, लेकिन आंखों में अब भी डर समाया हुआ था। बदहवास और व्याकुल वह फिर बच्चे की ओर बढ़ी।

हवलदार जल्दी-से जल्दी झगड़ा निबटाना चाहता था। बच्चेवाली औरत से बोला, “बच्चा इसके हवाले कर दो।”

“क्यों दे दूं,बच्चा मेरा है…..।”

“तेरे पेट से पैदा हुआ था?”

बच्चेवाली औरत चुप हो गई और घूर-घूरकर दूसरी औरत को देखने लगी।

“बोल तेरे पेट से पैदा हुआ था?” हवलदार ने फिर गुस्से से पूछा।

“पेट से पैदा नहीं हुआ तो क्या, दूध तो मैंने पिलाया है। पिछले सात महीने से पिला रही हूं।”

“दूध पिलाया है तो इससे बच्चा तेरा हो गया? बच्चे को ज़बरदस्ती लिए जा रही है?”

“ज़बरदस्ती क्यों ले जाऊंगी, मेरे अपने बच्चे सलामत रहें। इसी से पूछ लो, डायन सामने खड़ी है।” फिर दूसरी औरत को मुखातिब करके बोलीं, “कलमुंही बोलती क्यों नहीं? मैं तेरे से छीन के ले जा रही हूं? हवलदार जी, इसने खुद बच्चे को मेरी गोद में डाला है। यह तो इसे जानकर घूरे पर फेंकने जा रही थी, मैंने कहा कि ला मुझे दे दे, मैं इसे पाल लूंगी। तब से मैं इसे पाल रही हूं । यह मुझे यहां छोड़ने आई थी। यहां आकर मुकर गई।”

हवलदार दूसरी औरत की ओर मुड़ा, “तूने इसे खुद दिया था, बच्चा?”

युवा औरत की बड़ी-बड़ी उद्भ्रान्त आंखें कुछ देर तक दूसरी औरत की ओर देखती रहीं, फिर झुक गई।

“दिया था, पर बच्चा मेरा है, मैं क्यों दूं, मैं नहीं दूंगी।”

और निस्सहाय-सी फिर दूसरी औरत की ओर देखने लगी। पहले जो आंसू आंखों में फूट पड़े थे, घबराहट के कारण फौरन ही सूख गए।

“तू ने दिया था तो अब क्यों वापस लेना चाहती है?”

कतार नेत्र फिर एक बार ऊपर को उठे और उसका सारा बदन कांप गया।

“यह इसे परदेश लिए जा रही है…..।” और कहते-कहते वह फिर रो पड़ी।

“मैं सदा तेरे पास पड़ी रहूं?” बच्चे वाली औरत बांहें पसार-पसार कर आस-पास के लोगों को सुनाती हुई बोलने लगी, “मेरे डेरे वाले सभी लोग चले गए हैं। यह मुझे छोड़ती नहीं थी। कहती थी दस दिन और रुक जा, फिर चली जाना। पांच दिन और रुक जा, चली जाना। करते-करते महीना हो गया। मैं यहां कैसे पड़ी रहूं? आज गाड़ी चलने लगी को कलमुंही मुकर गई है।”

“यह तेरे रिश्ते की है?” हवलदार ने पूछा।

“रिश्ते की क्यों होगी जी, यह काठियावाड़ की है, हम बनजारे हैं।”

“तू गाड़ी में कहां जा रही है?”

“फिरोजपूर, जी।”

“वहां क्या है?”

“हम बनजारे हैं, हवलदारजी, पहले हमारे लोगों ने यहां ज़मीन ली थी, पूरे दो साल हलवाही की है। अब हमें फिरोज़पूर में ज़मीन मिली है। हमारे सभी लोग चले गये हैं, पर यह मुझे छोड़ती नहीं थी।”

हवलदार दुविधा में पड़ गया। एक ने जानकर फेंक दिया, दूसरी ने दूध पिलाकर बड़ा किया। बच्चा किसका हुआ?

“तेरा घर-घाट कोई नहीं है, जो अपना बच्चा इसे दे दिया? तू रहती कहां है?” हवलदार ने बच्चे की मां से पूछा।

“यह कहां रहेगी जी, पुल के पास जो फूंस के झोंपड़े हैं, यह वहीं पर रहती है। हम वहीं पर रहते थे। यह मेरी पड़ोसिन है जी, मजदूरी करती है। इसकी तो नाल भी मैंने काटी थी। ”बच्चे की मां उद्भ्रान्त-सी अपने बच्चे की ओर देखे जा रही थी। लगता जैसे वह कुछ भी सुन नहीं रही है।

“इसका घरवाला कहां है?”

“इसका घरवाला कोई नहीं जी। यह तो मरदों के पीछे भागती है, कोई इसे बसाता नहीं।

इसका घरबार होता तो यह बच्चे को जनकर फेंकने क्यों जाती?”

इतने में गार्ड ने सीटी दी।

भीड़ में से छंटकर लोग अपने-अपने डिब्बों की ओर जाने लगे। बनजारन भी डिब्बे की ओर घूमी। बच्चे की मां ने आगे बढ़कर उसके पांव पकड़ लिए।

“मत जा, मत ले जा मेरे बच्चे को, मत ले जा!”

कुछेक लोगों को तरस आया। हवलदार ने दृढ़ेता से आगे बढ़कर बनजारन से कहा, “बच्चा वापस दे दे। अगर मां बच्चा नहीं देना चाहती तो तू उसे नहीं ले जा सकती।”

हवलदार की आवाज़ में दृढ़ता थी। बनजारन को इस निर्णय की आशा नहीं थी। वह छटपटा गई। “मैं क्यों दे दूं जी, अपने बच्चे को भी कोई देता है? किसको दे दूं? इसका घर है, न घाट……”

“गाड़ी छूटने वाली है, जल्दी करो, बच्चा मां के हवाले करो वरना हवालात में दे दूंगा।” हवलदार ने अब की बार कड़ककर कहा।

औरत घबरा गई और किंकर्तव्यविमूढ़-सी आसपास खड़े लोगों की ओर देखने लगी। फिर अपनी साथिन की ओर देखते हुए चिल्लाकर बोली, “हरामज़ादी! कुतिया! यहां आकर मुकर गई। ले बेगैरत, ले संभाल, फिर कहना दूध पिलाने को, ज़हर पिलाऊंगी, इसे भी और तुझे भी। सात महीने तक अपने बच्चे का पेट काटकर इसे दूध पिलाया है…..।” और झटक कर बच्चा उसके हाथों में दे दिया और फूट-फूटकर रोने लगी।

अजीब तमाशा था। दोनों औरतें रोये जा रही थीं। दोनों एक-दूसरी की दुश्मन, दोनों एक ही बच्चे की माताएं। बेघर लोगों को न हँसने की तमीज़ होती है, न रोने की। और कलह का कारण, दुबला-पतला, पित्त का मारा बच्चा, अब भी मुट्ठियां भींचे सो रहा था।

बनजारन गालियां बकती, रोती, बड़बड़ाती गाड़ी में चढ़ गई।

“तुम्हें तुम्हारा बच्चा मिल गया है। यहां से चली जाओ फौरन…..”

हवालदार ने सोये बच्चे की पीठ पर छड़ी की नोंक रखते हुए, धमकाकर कहा, “फौरन यहां से चली जाओ!”

बच्चे को छाती से चिपकाए, मां पीछे हट गयी। भीड़ बिखर गई। डिब्बे के दरवाज़े में खड़ी बनजारन अभी भी चिल्लाए जा रही थी, “कंजरी, हरामज़ादी, तू ने इसे जनते ही क्यों नहीं मार डाला? जब भी मार डालेगी, तभी मेरे दिल को चौन मिलेगा, नासपिट्टी…!”

बच्चे ने गोद पहचान रखी थी या तो इस कारण रहा हो या हवालदार के बेंत की नोक लगने के कारण, बच्चा जाग गया और अपनी नन्हीं-नन्हीं मुट्ठियों से पहले तो अपनी नाक पीसने लगा, फिर आंखें और थोड़ी देर के बाद अपनी मुट्ठी मुंह में ले जाकर उसे चूसने लगा। औरत अभी भी उद्भ्रांत-सी पीछे हट गई और प्लेटफ़ार्म की दीवार के साथ जा खड़ी हुई।

बच्चा दूध के धोखे में अपनी मुट्ठी चूसता रहा, पर दूध न मिलता देख बिलकुल जग गया और दोनों टांगें ज़ोर-ज़ोर से पटककर रोने लगा। मां ने उसे दाएं कन्धे से हटाकर बाएं कन्धे के साथ सटा लिया। लेकिन बच्चा और भी ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा।

मां परेशान हो उठी। कभी बच्चे को एक करवट उठाती, कभी दूसरी, कभी दाएं कन्धे पर उसका सिर रखती, कभी बाएं पर।

बच्चे का रोना सुनकर डिब्बे के दरवाज़े में खड़ी बनजारन फिर चिल्लाने लगी, “मार डाल, तू इसे मार डाल! नासपिट्टी, इसे ज़हर क्यों नहीं दे देती! दोपहर से इसके मुंह में दूध की बूंद नहीं गई। बच्चा रोएगा नहीं?”

हवलदार छड़ी झुलाता वहां से जा चुका था। दो-एक कुलियों को छोड़कर डिब्बे के सामने कोई नहीं था। दूर, पीछे की ओर, नाली वर्दीवाला गार्ड हरी झंडी दिखा रहा था।

गाड़ी ने सीटी दी और चलने को हुई।

बच्चा रोए जा रहा था। मां ने अपने फटे हुए कुरते की जेब में से मूंगफली के कुछेक दाने निकाले और बच्चे के मुंह में ठूंसने लगी।

“नासपिट्टी, यह क्या उसके मुंह में डाल रही है? मेरे बच्चे को मार डालेगी। कसाइन, कंजरी……!”

और घूमकर पहले एक छोटा-सा टीन का बक्सा और फिर छोटी-सी गठरी प्लेटफार्म पर फेंकी और बड़बड़ाती, गालियां बकती हुई गाड़ी पर से उतर आई। “हरामज़ादी, मेरी गाड़ी छुड़ा दी। मौत खाए तुझे! नासपिट्टी……!”

गाड़ी निकल गई। एक-एक करके कुली स्टेशन के बाहर चले गए। प्लेटफार्म पर मौन छा गया। हवलदार अपनी गश्त पर दूर प्लेटफार्म के दूसरे सिरे तक पहुंच चुका था, लेकिन जब छड़ी झुलाता हुआ वह वापस लौटा, तो प्लेटफार्म के एक कोने में दीवार के साथ सटकर वही दोनों औरतें बैठी थीं। बनजारन अपनी गोद में बच्चे को लिटाए, उसे अपने आंचल से ढके, दूध पिला रही थी और पास बैठ बच्चे की मां धीरे-धीरे अपने लाड़ले के बाल सहला रही थी।

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