‘यादों के आईने में’ का हुआ लोकार्पण

  • Post author:Web Editor
DSC 0484

DSC 0508

उज़ैर ई. रहमान की ग़ज़ल और नज़्म का संकलन है यह पुस्तक

नयी दिल्ली. गुरुवार शाम राजधानी स्थित ऑक्सफोर्ड बुकस्टोर में उज़ैर ई. रहमान की किताब ‘यादों के आईने में’ का लोकार्पण हुआ l यह पुस्तक राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैl समारोह में लेखन जगत से जुडी कई हस्तियाँ शामिल हुएl राजकमल प्रकाशन समूह के सम्पादकीय निदेशक सत्यानन्द निरुपम ने लेखक के साथ बात की और  साथ ही आर जे सायमा ने पुस्तक से गजलों और नज्मों से अपनी मधुर आवाज से लोगों को मंत्रमुग्ध किया l
‘यादों के आईने में’ उज़ैर ई.रहमान की ग़ज़लों  और नज़्में का संकलन हैl उनकी लेखनी तजरबेकार दिल-दिमाग की अभिव्यक्तियाँ हैं। सँभली हुई ज़बान में दिल की अनेक गहराइयों से निकलती ये  गज़लें कभी पढने वालों को माज़ी में ले जाती हैं, कभी प्यार में मिली उदासियों को याद करने पर मजबूर करती हैं, कभी साथ रहनेवाले लोगों और ज़माने के बारे में, उनसे हमारे रिश्तों के बारे में सोचने को उकसाती हैं और कभी सियासत की सख्तदिली की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं।
बातचीत के दौरान किताब के लेखक उज़ैर ई रहमान ने कहा, “शायरी का शौक तो था लेकिन कुछ लिखने का खयाल बहुत देर से आया। विश्वविद्यालय से सेवा निवृत्त होने के बाद समय मिला और मेरी पहली पुस्तक  ‘यादों के आइने में’ आपके सामने है”।
“साजिशें बंद हों तो दम आये, फिर लगे देश लौट आया है”,  इन गज़लों को पढ़ते हुए उर्दू गज़लगोई की पुरानी रिवायतें भी याद आती हैं और ज़माने के साथ कदम मिलाकर चलने वाली नई गज़ल के रंग भी दिखाई देते हैं। संकलन में शामिल नज़्मों का दायरा और भी बड़ा है। ‘चुनाव के बाद’ शीर्षक एक नज़्म की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं:
सामने सीधी बात रख दी है/ देशभक्ति तुम्हारा ठेका नहीं ज़ात-मजहब बने नहीं बुनियाद/बढ़के इससे है कोई धोखा नहीं। / कहते अनपढ़-गंवार हैं इनको/ नाम लेते हैं जैसे हो गाली/ कर गए हैं मगर ये ऐसा कुछ/ हो न तारीफ से ज़बान खाली।
यह शायर का उस जनता को सलाम है जिसने चुनाव में अपने वोट की ताकत दिखाते हुए एक घमंडी राजनीतिक पार्टी को धूल चटा दी। इस नज़्म की तरह उज़ैर ई. रहमान की और नज़्में भी दिल के मामलों पर कम और दुनिया-जहान के मसलों पर ज़्यादा गौर करती हैं। कह सकते हैं कि गज़ल अगर उनके दिल की आवाज़ हैं तो नज़्में उनके दिमा$ग की। एक नज़्म की कुछ पंक्तियाँ हैं:
देश है अपना, मानते हो न/ दु:ख कितने हैं,जानते हो न/ पेड़ है इक पर डालें बहुत हैं/ डालों पर टहनियाँ बहुत हैं/ तुम हो माली नज़र कहाँ है/ देश की सोचो ध्यान कहाँ है।

लेखक के बारे में:

उज़ैर ई. रहमान (पूरा नाम : उज़ैर एहतेशाम रहमान) की पैदाइश भागलपुर, बिहार में 1949 में हुई। आपके वालिद वहाँ के सेंट्रल जेल में डिप्टी सुपरिंटेंडेंट के ओहदे पर फायज़ थे तो आपकी इब्तदाई तालीम भी वहीं हुई। बाद में पटना यूनिवर्सिटी से अंग्रेज़ी अदब में तालीम मुकम्मल की और फिर दिल्ली 21 साल की उम्र में किस्मत आज़माने आए। 1970 में दिल्ली यूनिवर्सिटी के देशबन्धु कॉलेज में अंग्रेज़ी के लेक्चरर मुकर्रर हुए और पढ़ना-पढ़ाना कुछ ऐसा रास आया कि एसोशिएट प्रोफेसर 29 साल रहकर 2014 में रामानुजन कॉलेज से रिटायर हुए। दो बार सिविल सर्विस की जॉब हासिल की मगर पढ़ने-पढ़ाने का शौक ही हावी रहा।

व्हॉटसएप पर जुड़ें : उड़ान हिन्दी पर प्रकाशित नई पोस्ट की सूचना प्राप्त करने के लिए हमारे ऑफिशियल व्हाट्सएप चैनल की नि:शुल्क सदस्यता लें। व्हॉटसएप चैनल - उड़ान हिन्दी के सदस्य बनें


कॉपीराइट सूचना © उपरोक्त रचना / आलेख से संबंधित सर्वाधिकार रचनाकार / मूल स्रोत के पास सुरक्षित है। उड़ान हिन्दी पर प्रकाशित किसी भी सामग्री को पूर्ण या आंशिक रूप से रचनाकार या उड़ान हिन्दी की लिखित अनुमति के बिना सोशल मीडिया या पत्र-पत्रिका या समाचार वेबसाइट या ब्लॉग में पुनर्प्रकाशित करना वर्जित है।