गरीब हो या अमीर, राजा हो या रंक किसी को भी कूछ भी मांगना हो, चाहे वह धन-दौलत हो या सुख-शांति हो, हम किससे मांगते है? ईश्वर से ही ना! फिर जिस ईश्वर के सामने हर कोई अपनी झोली फैला कर मांगता है, उसी ईश्वर को हम दक्षिणा क्यों चढ़ाते है? इंसान भी कितना अनोखा जीव है! पहले भिखारी बन कर भगवान से हाथ जोड कर मांगता है। फिर गर्व से उसी भगवान को दान देकर, नीचे अपना नाम लिखवाकर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करता है!! कहा जाता है कि कभी भी देने वाला बड़ा होता है। तो क्या मंदिर में दक्षिणा चढ़ा कर, इंसान अपने-आप को ईश्वर से बड़ा साबित करना चाहता है? हम दक्षिणा किसे देते है, उसे जिसके पास सब कूछ है, कुबेर का ख़ज़ाना है! क्यों करता है इंसान ऐसा? मुझे यह बात आज तक समझ में नहीं आई है कि आखिरकार हम मंदिरों में दक्षिणा क्यों चढ़ाते है?
‘मंदिर’ का अर्थ होता है- ‘मन से दूर कोई ऐसा स्थान, जहां मन को शांति मिले!’ मंदिर जाने का पहला कारण यह है, हमें लगता कि इससे हमारी सारी समस्याएं समाप्त हो जाएगी। हमारे जीवन में कूछ बातें ऐसी होती है, जो हम किसी के भी साथ शेयर नहीं कर सकते। वे सब ईश्वर के सामने बोलने से हमारे मन को अपार शांति मिलती है। मंदिर जाने का दूसरा कारण है, मंदिर का निर्माण वास्तुशास्त्र के अनुसार किया जाने से और मंदिर में होने वाले शंख और घंटियो की आवाज़ों से, वहां एक सकारात्मक उर्जा बहती है जिसका सकारात्मक असर हमारे दिलो दिमाग पर होता है।
भय में इंसान ईश्वर को भी रिश्वत देता है!!
यदि दुनिया के बहादुरों के भीतरी मन में उतरा जाए तो वहां भयभीत आदमी मिलेगा। दुनिया का सबसे बड़ा तानाशाह हिटलर को भी हर समय डर लगते रहता था कि कोई उसे मार न दे! इसीलिए उसने शादी तक नही की! उसे भय था कि कहीं उसकी पत्नी उसे जहर ना दे दे! आत्महत्या करने से सिर्फ दो घंटे पहले उसने शादी की क्योंकि अब तो मरना ही है! डर के कारण ही इंसान ईश्वर को दक्षिणा चढ़ाता है या यो कहिए कि रिश्वत देता है। कल को बीमारी आए, गरीबी आए या कोई भी संकट आए हे ईश्वर, हमारी रक्षा करना। जैसे हम सुनहरे भविष्य के लिए LIC आदि में invest करते है ठीक उसी तरह मंदिर में दक्षिणा चढ़ा कर हमें लगता है कि ईश्वर हमारे भविष्य में आने वाली परेशानियों से हमें बचाएगा। ईश्वर को रिश्वत देने के बारे में मुझे एक कहानी याद आ रही है।
एक आदमी समुद्र में यात्रा कर रहा था। वह करोड़ों रुपए की संपत्ति लेकर घर लौट रहा था। तूफ़ान आया, नाव ड़गमगाने लगी। वह घबरा गया। उसने हाथ जोड़े, प्रार्थना की और ईश्वर से कहा, “हे प्रभू! यदि मैं और मेरी नाव बच जाए, तो मैं मेरा बंगला बेच कर उससे जो भी राशि मिलेगी उसे ग़रीबों में बांट दुंगा। बंगला मुश्किल से दस लाख रुपए का था और नाव में करोड़ों की संपत्ति थी। वह ईश्वर को धोखा दे रहा था, सस्ते में सौदेबाजी कर रहा था। हम सब भी तो यहीं करते है। 51 रुपए का प्रसाद चढ़ायेंगे, मेरे बेटे को नौकरी लगवादो, बेटी की शादी करवा दो, परीक्षा में पास करवा दो आदि। अदालत का चपराशी भी 51 रुपए की रिश्वत लेने तैयार नहीं होता! और हम ईश्वर से इतनी सस्ती सौदेबाजी करते है! क्या हम ईश्वर को एक चपराशी से भी गया-गुजरा समझते है? संयोग की बात नाव बच गई। ईश्वर दस लाख के लोभ में आ गया होगा ऐसा तो नहीं माना जा सकता। लेकिन अब उस आदमी की नींद खराब हो गई।
सोचने लगा कि यदि ग़रीबों में पैसा नहीं बांटा तो ईश्वर नाराज़ हो जायेंगे। क्योंकि जो ईश्वर रिश्वत लेने से खुश हो सकते है, वे नाराज़ भी तो हो सकते है!!! वह पंडित के पास गया। पंडितों के पास तो एक से एक उपाय रहते है। दूसरे दिन उस आदमी ने पूरे शहर में मुनादी करवा दी कि मुझे बंगला बेचना है, जिसको खरिदना हो सुबह आ जाए। उसने बंगले के सामने एक बिल्ली बांध दी और कहा कि बिल्ली के दाम दस लाख रुपए और बंगले का दाम एक रुपया! लोगों ने कहा, पागल हो गए हो। बिल्ली के दाम दस लाख रुपए। अरे, बिल्ली खरिदनी किसको है? हम तो बंगला ख़रीदने आए है। पर उसने कहा, मुझे तो बिल्ली और बंगला साथ में बेचना है। जिसको लेना हो, एक ही ग्राहक को एक साथ ही बेचुंगा। लोगों की समझ में नहीं आया। बंगला दस लाख से कूछ ज्यादा का ही था। लोगों ने कहा उसका प्रयोजन कूछ भी हो। हमें तो फायदा ही होगा। एक आदमी ने दस लाख की बिल्ली ख़रीद ली और एक रुपए में मकान ख़रीदा लिया। अब उस आदमी ने दस लाख रुपए खुद रख लिए और एक रुपया एक गरीब को दे दिया! अपने मतलब की व्याख्या कर ली। ईश्वर भी खुश और वो भी खुश।
क्या हम सब भी कूछ-कूछ ऐसा ही नहीं करते है। चाहे उपवास की बात हो या दान दक्षिणा की। हमारे हर नियम क़ानून-कायदे हम अपनी सुविधा नुसार बदलते है। छोटे मंदिर में कम दक्षिणा चढ़ाते है और जितने बड़े मंदिर मे जाते है उतनी ज्यादा दक्षिणा चढ़ाते है। क्यों? क्या छोटे मंदिर के भगवान छोटे है और बड़े मंदिर के भगवान बड़े है? क्या भगवान भी छोटे-बड़े होते है??
मंदिर की देख-रेख और व्यवस्थापन हेतु दक्षिणा
मंदिर में दक्षिणा चढ़ाने के पिछे एक तर्क यह दिया जाता है कि मंदिर की देख-रेख और व्यवस्थापन हेतु दक्षिणा चढ़ाई जाती है। लेकिन क्या आपको इस कथन में जरा भी सच्चाई नजर आती है? क्या दक्षिणा चढ़ाते वक्त कभी भी हमारे मन में भूले-भटके भी यह ख्याल आता है कि हम यह दक्षिणा मंदिर की देख-रेख हेतु चढ़ा रहे है? वैसे भी यह एक अलग बहस का मुद्दा है कि आज हमें मंदिरों की ज्यादा आवश्यकता है या स्कूल-कॉलेजों की, अस्पतालों की एवं शौचालयों की! जैसे कूछ समय पहले एक नेता का बयान आया था कि “हमें आज देवालयों से ज्यादा शौचालयों की आवश्यकता है!” जिस पर खुब बखेड़ा भी हुआ था। लेकिन उस नेता ने सच्ची और एकदम कटू बात स्पष्ट शब्दों में कहीं थी, जो पचाने की क्षमता आम भारतीय में आज भी नहीं है!!!
खुद को बड़ा सिद्ध करने के लिए दक्षिणा
कई बार देखने में आता है कि दूसरों को प्रभावित करने के लिए भी मंदिरों में ज्यादा दक्षिणा चढ़ाई जाती है। सार्वजनिक स्थानों पर तो अक्सर ऐसा होता है। उसने 5000 रुपए दक्षिणा में दिए है क्या, मैं 7000 रुपए दूंगा/दूंगी! उसने एक किलों का प्रसाद चढ़ाया है, तो मैं दो किलों का प्रसाद चढ़ाऊंगी/चढ़ाऊंगा! ऐसे में अब आप ही सोचिए कि हम ये दक्षिणा क्यों चढ़ा रहे है? सिर्फ खुद को बड़ा सिद्ध करने के लिए ही न!
क्या दक्षिणा चढ़ाने से सभी समस्याएं हल हो जाती है?
यदि दक्षिणा चढ़ाने से ही भला हो जाता तो अब तक देश विकसित हो चुका होता। कोई भी बेऔलाद न रहता, हर कोई बिना पढ़े ही पास हो जाता, कभी कोई बिमार नहीं पड़ता यानि दान-दक्षिणा देने वाले सभी लोग हर तरह की परेशानियों से मुक्त हो जाते! मगर गौर करनेवाली बात यह है कि लाखों-करोड़ो रुपए दक्षिणा में चढ़ानेवाले भी किसी न किसी परेशानी से जुझते ही है।
उपरोक्त सभी बातों पर गौर करने के बाद मुझे लगता है कि दक्षिणा चढ़ाने से हमें एक तरह की मानसिक शांति मिलती है और हमें लगता है कि बदले में ईश्वर हमारी रक्षा करेंगे। इसके अलावा मंदिरों में दक्षिणा चढ़ाने का और कोई प्रयोजन आज तक मेरी समझ में नहीं आया है। आपको क्या लगता है, हम मंदिरों में दक्षिणा क्यों चढ़ाते है?
रचनाकार – ज्योति देहलीवाल (सुप्रसिद्व ब्लॉगर)
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