भारतवर्ष मे शुरू से ही नारी को पूज्यनीय माना जाता है और माना जाता रहा है कि नारी ही एक परिवार की रीढ़ होती है परन्तु फिर भी नारी का उत्पीड़न व शोषण होता हुआ आ रहा है, लेकिन क्यो? देश मे अनगिनत संस्थाएं कार्य कर रहीं हैं, जो महिला उत्थान के लिए प्रयासरत है और सरकार भी अनेकानेक प्रयास कर रही है परन्तु फिर भी अच्छा परिणाम नही मिल पा रहा है।
महिला उत्थान को समर्पित संस्थाएं महिलाओ को उनके अधिकार व शोषण के प्रति जागरूक कर रही है, परन्तु अधिकतर गॉव-देहात मे नारियों की मानसिकता अभी भी वैसी ही है अर्थात पुरानी मानसिकता वाली महिलाएं जिनकी वजह से आने वाली भावी नारियों के उत्पीड़न को बढ़ावा मिल रहा है क्योकि क्योंकि वे चाहती है उनकी परम्परा चलती रहे या यह कह सकते है कि महिलाएं ही महिलाओं के उत्पीड़न की जिममेदार है।
जिन महिलाओं के विचार पुरानी रीति रिवाजो वाले है वे अपनी बहू मे भी वे ही संस्कार देखना चाहती है, जो उन्होंने निभाए हैं या झेले है। कुछ इन शब्दो मे कह सकते है जो उन पर जो बीती है वे वही सब कुछ अपनी बहू पर लागू करना चाहती है। वे महिलाएं चाहती है कि मेरी बहू सिर्फ बहू बनकर ही रहे।
इसके अलावा पुराने रीति रिवाजो वाले टी0वी0 सीरियल भी महिला उत्पीड़न को बढ़ावा दे रहे है। जिसे अधिकतर महिला ही देखती हुई मिल जायेगी और उसके किरदार का असर घरेलू महिलाओ मे धीरे-धीरे घर करने लगा है उन्हे पता भी चलता कि कब वह उस किरदार के जैसी हो गई। शहरो में भी पुरानी मानसिकता वाली महिलाएं भी कम नही है।
आए दिन समाचार पत्रों, न्यूज चैनलों में उत्पीड़न सम्बन्धी खबर पढ़ने को मिल जाती है। महिलाओं की ये पुराने ख्यालो की सोच से सिर्फ देश के विकास को ही नही बल्कि स्वतंत्र विचारों वाली महिला अर्थात जो महिलाएं जीवन में कुछ करना चाहती हैं, जो चाहती हैं कि वे भी बिजनेस करें, नौकरी करें या अधिकारी बनें, उन्हें भी कैद कर लिया है।
ऐसी मानसिकता वाली महिलाएं आज भी हर घर मे देखने को मिल जाएंगी। फिर भी आज का पुरूष महिला उत्थान को बढावा देने का प्रयास कर रहा है और उसको अपने बराबर का समझने की कोशिश कर रहा है परन्तु एक महिला जो रूढ़िवादी मानसिकता वाली है। वह किसी ओर महिला ऑफिस जाते हुए या किसी महिला को बाहर काम करने को लेकर उसे बदनाम करने मे कोई कसर नही छोड़ती। छोटी-छोटी बातो पर उसे बदचलन अवारा एवं अन्य गन्दे अपशब्दों से उसकी अवहेलना करना उनकी मानसिकता में है। मेरे विचार से जो संस्थाएं महिला उत्थान के लिये कार्य कर रही है, उन्हे सर्वप्रथम महिलाओ की मानसिकता को बदलना होगा।
यह आम बात है कि जब कोई भी महिला अपने घर के काम से खाली हो जाती है तो वह सिर्फ मोहल्ले या गॉव मे इकटठी होकर कुछ भी ऐसा कार्य या चर्चा नहीं करती हैं, जो समाज या देश के लिये लाभदायक हो बल्कि इधर की उधर करना उनकी आदतों मे शामिल होता है। देखियो रि उसकी शादी को अभी साल भर नही हुआ वो ऑफिस भी जाने लगी आदि-आदि।
शादी के बाद लड़का न हो तो ससुरालियों की नजर में बहू अपशगुनी मानी जाती है और सास नन्द की नजरों में उसकी कोई इज्जत नही रह जाती है। इन सब बातों को लेकर पुरूष भी खुद को अपमानित महसूस करता है और बस यहीं से महिला का उत्पीड़न शुरू हो जाता है। इसके पीछे सबसे बड़ा हाथ पुरानी मानसिकता वाली सासो का ही है।
यदि एक महिला चाहे तो यह सब कुछ बदल सकता है लेकिन क्यों उठाये ये कदम क्योंकि उन्हें तो अपनी परम्परा निभानी है। ऐसी परम्परा का क्या फायदा जो ना समाज के उत्थान में है और ना ही परिवार के उत्थान में।
यदि कोई विधुर या तलाकशुदा पुरुष विवाह करता है तो समाज उसे सम्मानजनक दृष्टि से देखता है और साथ ही कहता है कि देखो उसकी क्या किस्मत है पहली गई, तो दूसरी आ गई। वहीं, यदि कोई विधवा या तलाकशुदा महिला विवाह करती है तो उसे समाज टेढ़ी नजरों से देखता है और कहता है कि देखो इससे एक घर में तो रहा नहीं गया, दूसरे घर को खराब करने जा रही है या इसे देखो दूसरे मर्द से इश्क लड़ाकर उसे अपने जाल में फंसा लिया और इसके अलावा बहुत से कई बार तो ऐसे अपशब्दों से महिला को आत्महत्या तक मजबूर कर देते हैं।
आस पड़ोस की महिलाएं उस विधवा को कोसती है कि डायन होगी तभी तो पहले पति को खा गई? इसके पैर ही अपशगुन है जो पहला पति मर गया। कहने का तात्पर्य यह है कि महिला ही महिला के जान की दुश्मन बनी हुई है वो किसी दूसरी महिला के आगे बढने पर खुश नही है।
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लेखक : राजेन्द्र सिंह बिष्ट
(लेखक राजेन्द्र सिंह बिष्ट कई वर्षों तक पत्रकारिता में रहने के बाद अब प्रकाशन व्यवसाय में हैं)
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