एक ना भरने वाला घाव है ये है
बन गया समाज का नासूर जो है।
नारी तन की अस्मिता को धूल
धूसरित करता ये ऐसा घाव है।
कभी निर्भया तो कभी साबिया को
होना पड़ता है इस जघन्य अपराध,
की दरिंदगी का शिकार तो क्या कहे।
है ये स्तब्ध कर देने वाली घटनाएं,
सुरक्षित नहीं देश की अपनी
प्यारी बेटियों की अस्मिता यहां।
बेखौफ घूम रहे हर ओर दरिंदे
समाज में हर ओर कहीं ना कहीं।
महिला असुरक्षा की
भावना प्रबल हो रही बड़ी ,
रसातल में जा रहा
आज का समाज अब तो ।
सजग रहे सर्तक रहे हर पल कैसे,
निर्भय रहे सदा हमारी देश की बेटियां।
बेटियों को आत्मसुरक्षा का,
पाठ हम सदैव ही पढाएं
अवान्छित तत्वो से दरिंदो
और इन वहशीयों से तो
अमानवीय लोगो से बचाएं।
ये कब होगा पूरी तरह संभव
जब होगी बेटियाँ हर तरह से साहसी।
एक मां ने अपने बल पर सब कुछ
सहकर अपनी बेटी को जीत दिलाई।
ये केवल एक मां ही कर सकती है
बेटी के बहने वाले हर आंसू का
सारा हिसाब एक मां ही ले सकती है।
—
कवयित्री सुरंजना पाण्डेय गद्य व पद्य विधाओं में लेखन करतीं हैं और लेखिका की एक काव्य संकलन प्रकाशित हो चुका है। इसे साथ ही कवयित्री की रचनाएं दर्जनों साझा संकलनाें में प्रकाशित हो चुकीं हैं।
उड़ान हिन्दी साहित्यिक पत्रिका के Facebook Group में जुड़ें
कॉपीराइट सूचना © उपरोक्त रचना / आलेख से संबंधित सर्वाधिकार रचनाकार / मूल स्रोत के पास सुरक्षित है। उड़ान हिन्दी पर प्रकाशित किसी भी सामग्री को पूर्ण या आंशिक रूप से रचनाकार या उड़ान हिन्दी की लिखित अनुमति के बिना सोशल मीडिया या पत्र-पत्रिका या समाचार वेबसाइट या ब्लॉग में पुनर्प्रकाशित करना वर्जित है।