प्रतिकार
निशा जो काँपती रही
दर्द कराहता रहा
भीत हो के भय भी
‘बचाओ ‘पुकारता रहा
आँखें खिड़कियों की
हैरत से फटी रहीं
दलहीज छाती पीट पीट
जोर – जोर चीखती रही
सिसक रही थी बेजुबान
दीवार मुख दाबकर
फर्श तो उस दंश को
खुद भी झेलता था कांपकर
सिसक – सिसक के आप ही
पवन सुबकता रहा
क्रोध से कांप कर
सिर्फ हाथ मलता रहा
तड़प रही थी वह और
संसार नींद में रहा
भान नही उसे जरा
कहाँ पे जुल्म हो रहा ?
पूछती हूँ मैं कि क्या
यही वो पुण्य भूमि है ?
राम कृष्ण सुभाष की
यही वो कर्म भूमि है?
चैतन्य की जो चेतना
क्यो हुई वो शून्य है
हो रहा समाज में
अपराध वह जघन्य है
पूजी जाती नारियाँ
जहाँ सत्कार से
नारी प्रधान राज्य यह
कहते हैं अधिकार से
*माँ गो* कह दुलार से
पुकारी जाती बेटियां
नवरात्रि में सिहासन पर
बिठाई जाती बेटियाँ
पूजी जाती बेटियाँ
बड़े ही शान – बान से
जन्म पर भी जश्न कर
सराही जाती है गुमान से
शोनार बांग्ला कहो
कैसे हुआ ये राख है
बेटियों की आबरू
हुई देखो खाक है-
अब मोमबत्ती नही ,
मशाल चाहिए हमें
शत्रुओं के दंश का
प्रतिकार चाहिए हमें
जैसे को तैसा
यह अधिकार चाहिए हमें
गली – गली में घूमते
शुभ और निशुंभ जो
उनके रक्त से सना हुआ
मुण्डमाल चाहिए हमें !
हिमाद्रि मिश्र ‘हिम ‘ दामोदरपुर