आज्ञाकारी पुत्र श्री रामचन्द्र

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त्रेता युग समाप्त हो रहा था। संसार में राक्षसों का बल बहुत बढ़ गया था। इसी समय सरयू नदी के तट पर अयोध्या नगरी में राजा दशरथ राज्य करते थे। उनके चार पुत्र थे- रामचन्द्र, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। रामचन्द्र इनमें सबसे बड़े थे। वैसे तो चारों भाई माता- पिता और गुरुजनों की हर आज्ञा का सदा प्रसन्नता से पालन करते थे, परन्तु रामचन्द्र जी तो गुणों के भण्डार थे। इन्होंने आयु भर बड़ों की आज्ञा- पालन करने और धर्म के अनुसार प्रजा- पालन करने में ऐसा आदर्श दिखाया कि संसार चकित रह गया। इसी से इन्हें ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ नाम से पुकारा जाता है। इन्होंने अपने जीवन में सदा मर्यादा का पालन किया।

जब राम बालक थे, उस समय इनका नियम था कि सोने से पहले और प्रातःकाल उठते ही माता- पिता के चरण छूना और दिन- भर उनके कहे अनुसार ही काम करना। राम सदा माताओं और पिता की हर आज्ञा का पालन करना अपना धर्म मानते थे। जब राजा दशरथ बूढ़े हुए, उन्होंने राम को युवराज बनाना चाहा। इस समय भरत और शत्रुघ्न ननिहाल गए हुए थे। सारे नगर को सजाया गया और स्थान- स्थान पर उत्सव होने लगे। जब रानियों को पता लगा, तो वे फूली न समाई, उन्होंने भी अपने भवनों को खूब सजवाया। पर विधाता की इच्छा कुछ और ही थी।

रानी कैकेयी की एक दासी थी, जिसका नाम था- मंथरा। वह बड़ी कुटिल थी। बुरे आदमियों को सदा बुराई सूझती ही है। इसलिए हमें सदा अच्छे लोगों की ही संगति करनी चाहिए। भूलकर भी बुरों के पास नहीं बैठना चाहिए। वह यह सब जानकर जल- भुन गई। उसने जाकर रानी कैकेयी को समझाया कि तुम्हारे पुत्र भरत को बाहर भेजकर राजा दशरथ राम को राज्य दे रहे हैं। भोली रानी उसकी चाल में आ गई और उसने राजा से दो वर माँगे। एक से राम को चौदह वर्ष के लिए वनवास और दूसरे से भरत को राज्य। राजा यह सुनते ही बेहोश होकर गिर पड़े, क्योंकि उन्हें राम से बहुत प्यार था। वे राम की जुदाई सहन नहीं कर सकते थे।

जब राम को यह सब पता लगा, तो वे बड़ी प्रसन्नता से वन जाने को तैयार हो गए। उन्होंने कैकेयी से हाथ जोड़कर कहा- हे माता! आपने पिता जी को क्यों कष्ट दिया, मुझे ही कह देतीं। मैं आपकी हर आज्ञा का प्राण देकर भी पालन करूँगा। इतना कहकर राम ने राजसी वस्त्र उतारकर वल्कल पहन लिए और वन जाने के लिए तैयार हो गए। वे सीधे माता कौशल्या के पास गए और उनके चरण छुए। उनका आशीर्वाद पाकर राम वन को चल पड़े। लक्ष्मण और सीता भी उनका वियोग न सह सकते थे और साथ में चले गए। चलते समय तीनों पिता दशरथ के पास गए और उनके तथा माता कैकेयी के चरण छूकर चल दिए।

इसके बाद राजा दशरथ यह वियोग न सह सके और स्वर्ग सिधार गए। अब गुरु वशिष्ठ ने भरत और शत्रुघ्न को ननिहाल से बुलाया। जब भरत को पिता की मृत्यु और बड़े भाइयों के वन जाने का समाचार मिला तो वे दुःख से रो उठे। उन्होंने राजा बनना स्वीकार नहीं किया। सेना, माताओं और गुरुजनों को साथ लेकर वन में राम को लौटाने के लिए गए, पर राम न लौटे। उन्होंने कहा कि मैं माता और पिता की आज्ञा से वन में आया हूँ। उनकी आज्ञा का पालन करना, हम सबका धर्म है। भरत निराश होकर राम की खड़ाऊँ लेकर लौट आए और चौदह वर्ष तक अयोध्या के बाहर नन्दिग्राम में रहे। भगवान् राम के लौटने तक उन्होंने भी वनवासी की तरह ही कंद- मूल खाकर व झोंपड़ी में रहकर तपस्या भरा कठोर जीवन बिताया और राज्य का काम भी करते रहे।

चौदह वर्ष बीतने पर जब राम लौटे, तब अयोध्या में दीपमाला सजाई गई और राम को राजा बनाया गया। जब तक राम जीवित रहे, उन्होंने ऐसा अच्छा राज्य चलाया कि आज भी लोग ‘राम-राज्य’ के गुण गाते हैं। उस समय कोई चोर न था, सब सदाचारी थे, सब सच बोलते थे, दोनों समय संध्या- वंदन करते थे, माता- पिता के होते हुए पुत्र की मृत्यु नहीं होती थी, सब सुखी थे, समय- समय पर अच्छी वर्षा होती थी, पृथ्वी धन- धान्य से भरपूर थी। बड़े- बड़े तपस्वी और महात्माओं की आज्ञा से ही श्री रामचन्द्र जी राज्य करते थे।

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