लिखने बैठा हूं” होकर तत्पर।
बोलो तो, अब क्या-क्या लिख दूं।
लिख दूं, बीती रातों का विषम बात।
हृदय मौन सहता था कुटिल घात।
अभिलाषा से लिपटी वह विषम रात।
टूटे सपनों के स्वर सिसकी में दबा हुआ।।
बोलो तो लिख दूं, बीते हुए पल को स्याही से।
हृदय कलुषित हुआ था अहंकार के बस।
उठी क्रोध की ज्वाला, अधिक भार के बस।
व्याकुल जो हुआ, क्षणिक तिरस्कार के बस।
सुविधा का द्वंद्व, जकड़े हुए था जो साथ।
मन भ्रमणाओं में लोभ-भाव से पगा हुआ।।
बोलो तो लिख दूं, अब तक पाए अनुभव को।
छल के बल का था जो अधिक प्रबल वेग।
जीवन से आशाएँ पाले था, मिले अधिक नेग।
इच्छाओं के वशीभूत विकल था थोड़ा सा देख।
कहता तो हूं, बीती बातों का अजब करामात।
मन की तृष्णा में डुबा अब तक था जगा हुआ।।
बस इतना तो बोलो, क्या कहते हो लिखने को?
सच कहता हूं, स्वीकृत हो तो लिख दूं मर्म ग्रंथ।
लिख दूं, समय-समय के होते वह विकल भाव।
जीवन से पाने की लालसा का वो अनुबंध।
लाभ-हानि के छाया में सिंचित हो, था लगा हाट।
मृग-तृष्णा की छाया का साथ जो लगा हुआ।।
लिखने बैठा हूं कब से, उन्मुक्त हृदय को लेकर।
जो कह दो लिख दूंगा, हानि-लाभ की बातें।
गणना करने को बैठोगे जो, रिक्त कहीं तो है।
सत्य वही लिख दूंगा, सपनों में उलझी हुई रातें।
खुद की छवि का थामा था जो ऐसे ही हाथ।
माथे पर उभड़े करम लेख से जो था ठगा हुआ।।
– मदन मोहन ‘मैत्रेय’
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