खाये जा रहे हैं,
जैसे खाते हैं लकड़ियों को घुन
वैसे ही खाये जा रहे हैं
किसानों के खेत,
खाने की।।
—
नीलेन्द्र शुक्ल ” नील ” काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में संस्कृत विषय से ग्रेजुएशन कर रहे है। लेखक का कहना है कि सामाजिक विसंगतियों को देखकर जो मन में भाव उतरते हैं उन्हें कविता का रूप देता हूँ ताकि समाज में सुधार हो सके और व्यक्तित्व में निखार आये। लेखक से ई-मेल sahityascholar1@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
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