खाये जा रहे हैं

  • Post author:Web Editor

खाये जा रहे हैं,
जैसे खाते हैं लकड़ियों को घुन
वैसे ही खाये जा रहे हैं
किसानों के खेत,

बिके जा रहे हैं
अनाज सेंत,
अभी और न जाने क्या क्या
खायेंगे,
खाये जा रहे हैं,
बाग़ बगीचे फूल और फल
चबाये जा रहे हैं
हरी भरी पत्तियाँ,
धीरे धीरे बढ़ रही है
गति,
खाने की
जब से बेंच दिये हैं
अपना वजूद ,
भूल गये हैं अपनी अहमियत
एकाएक ,
यह बदलाव
कहीं खा न जाए
गाँव ,घर
पूरा का पूरा
शहर
कहीं बेंचनी न पड़ जाये
या बेंच दें आबरू
बहन और बेटियों की
कहीं नीलाम न कर दें
माँ की इज्जत
खाने ख़ातिर
कहीं साजिस न
रची जा रही हो
हमारे प्रदेश ,देश
और
समूचे राष्ट्र को

खाने की।।

नीलेन्द्र शुक्ल ” नील ” काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में संस्कृत विषय से ग्रेजुएशन कर रहे है। लेखक का कहना है कि सामाजिक विसंगतियों को देखकर जो मन में भाव उतरते हैं उन्हें कविता का रूप देता हूँ ताकि समाज में सुधार हो सके और व्यक्तित्व में निखार आये। लेखक से ई-मेल sahityascholar1@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।


उड़ान हिन्दी साहित्यिक पत्रिका के Facebook Group में जुड़ें


कॉपीराइट सूचना © उपरोक्त रचना / आलेख से संबंधित सर्वाधिकार रचनाकार / मूल स्रोत के पास सुरक्षित है। उड़ान हिन्दी पर प्रकाशित किसी भी सामग्री को पूर्ण या आंशिक रूप से रचनाकार या उड़ान हिन्दी की लिखित अनुमति के बिना सोशल मीडिया या पत्र-पत्रिका या समाचार वेबसाइट या ब्लॉग में पुनर्प्रकाशित करना वर्जित है।