हसरत-ए-अरमां

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चले थे बड़े गुमां के साथ
दिल में हसरत-ए-अरमां लिए
तलाश-ए-मजिल की
निकल पड़े अन्जां राह पर….
निकल आये बहुत दूर कि
दिखाई दी वीराने में
धुंध रोशनी सी
और धुधंली सी राह….
लेकिन जमाने की बेरूखी
और गन्दी सोच तो देखिये
बिछा दिये काटें राह में
जमाने का दस्तूर है ये तो
कसर ना छोड़ी राह ने भी
ठोकरे देने में हमें….
लेकिन चलते रहे फिर भी
हसरत-ए-अरमां लिए
कि जमाने को दिखा देंगे
कम नही तुझसे हम भी….
खुश हुए पलभर के लिए
कि हरा दिया जमाने को हमने
मंजिल-ए-करीब थे जब….
लेकिन देखिये तो सही
जिगर-ए-राजन
छोड़ आये मंजिल को
खुशी के लिए जमाने की
और हार गये जीत कर भी
हम जमाने से!!!

(नोट : यह कविता राजेन्द्र सिंह बिष्ट द्वारा वर्ष 2011 में लिखी गयी है)

लेखक : राजेन्द्र सिंह बिष्ट

(लेखक कई वर्षों तक पत्रकारिता में रहने के बाद अब प्रकाशन व्यवसाय में हैं)