गड्ढे
विक्रम सिंह पैंसठ साल के बुजुर्ग व्यक्ति रोज की तरह आज भी फावड़ा , तसला और अन्य जरूरी चीजें कंधे पर रखकर निकल पड़े रोड पर हो चुके गड्ढों को भरने के लिए ।
ये उनका रोज का नियम था ।
सप्ताह में तीन दिन मजूरी करके पेट भरने के लिए पैसे कमाना और चार दिन इसी तरह सुबह से शाम तक सड़क के गड्ढों को भरना ।
एक दिन मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने पूछ लिया कि आप काम तो अच्छा कर रहे हो मगर ये सब कब से और क्यों चल रहा है ? जबाव सुनकर उनके प्रति मेरा सम्मान और भी बढ गया ।
जबाव देने से पूर्व उनके चेहरे के भाव कुछ मिले जुले से थे जिनमें क्रोध और दुख दोनों का मिश्रण था ।
वहीं सड़क के किनारे बैठते हुए बताने लगे कि मेरा एक ही बेटा था करीब बीस साल का जो आज से बीस साल पहले
एक रोज मोटरसाइकिल से किसी काम के चलते बाजार गया हुआ था लौटते समय उसे बारिश ने घेर लिया ।
बारिश थम जाने पर वह घर लौट रहा था ।
मानसून की पहली बारिश ने ही सडकों पर पानी ला दिया
लौटते समय सड़क पर पानी में छुपे गड्ढे को वो देख ना सका और उसी सड़क दुर्घटना में उसका देहावसान हो गया।
मैं अंदर तक टूट गया क्योंकि मेरे पास अब जीने का कोई बहाना नहीं बचा था । पहले पत्नी और फिर बेटा दोनों मुझे छोड़कर जा चुके थे ।
मैं यही कह रहा था कि ऐसा किसी के साथ ना हो जैसा मेरे साथ हुआ है लेकिन दिमाग में प्रश्न उठा कि सड़क पर इतने गड्ढे होते हैं कि ऐसी दुर्घटनाएं तो होती रहेगीं ।
तब मैंने ठान लिया कि जैसा मेरे साथ हुआ है वैसा मैं किसी के साथ नहीं होने दूँगा और तब से लेकर अब तक बीस साल से मैं गड्ढे भर रहा हूँ । अब मेरी यही दिनचर्या है ।
मानता हूँ कि भ्रष्टाचार के कारण ये सब हो रहा है मगर मेरी भी जिम्मेदारी है जिसे मैं निभा रहा हूँ ।
लक्ष्मण सिंह त्यागी रीतेश