इस जमाने में मुझे गम्भीर सी हुंकार देना,
रूप देना, शौर्य देना, इक नया अवतार देना।
मैं शहीदों सा मरूं, हो जश्न पूरे देश में,
बोल दूँ जय हिन्द बस, इसके लिए पल चार देना।।
हो नही अभिमान मुझको, राष्ट्र पे मैं मर मिटूँ,
गोलियाँ सीने पे खाऊं, शक्ति सब साकार देना।।
वीरगति मैं प्राप्त होऊँ, इस भयंकर युद्ध में,
पुण्य भारतवर्ष का मुझको, सदा संस्कार देना।।
माँगने पर यदि मिले न, छीनकर मैं खा सकूँ,
ज़ुल्म से लड़ता रहूँ ऐसे, परम अधिकार देना।।
मैं झुका न हूँ, झुकूँ न चापलूसों की तरह,
फिर नही इस देश को आशाभरी सरकार देना।।
हे मेरी माते! मुझे रोको नही अब जंग से,
एक बेटा मर गया तो दूसरे को प्यार देना।।
मैं बड़ा पापी हूँ, मैं हतभाग्य बंधन सख्त हूँ,
युद्ध के मैदान में ही माँ मुझे उद्धार देना।।
शाखे-गुल पे बैठ के मैं भी इबादत कर सकूँ,
हिन्द का बच्चा हूँ, हिंदुस्तान में घर द्वार देना।।
मैं अगर कर्तव्य-पथ से च्युत कभी हो जाऊँ तो,
लेखनी मेरी! मेरे कविकर्म को धिक्कार देना।।
मैं यहाँ अभिमन्यु के सम हूँ अकेला भीड़ में
“नील” तुम इन कायरों को अब सुदृढ़ आधार देना।।
—
नीलेन्द्र शुक्ल ” नील ”
नीलेन्द्र शुक्ल ” नील ” काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में संस्कृत विषय से ग्रेजुएशन कर रहे है। लेखक का कहना है कि सामाजिक विसंगतियों को देखकर जो मन में भाव उतरते हैं उन्हें कविता का रूप देता हूँ ताकि समाज में सुधार हो सके और व्यक्तित्व में निखार आये। लेखक से ई-मेल पर संपर्क किया जा सकता है।