प्राचीन समय में घने वन में एक तपस्वी साधना कर रहा था। उसे न तो स्वर्ग पाने की आकांक्षा थी, न भूख की चिंता थी, न प्यास की चिंता थी। रात-दिन आंख बंद किए हुए प्रभु स्मरण में लीन रहता था। उसी वन में एक दरिद्र युवती लकड़ियां बीनने आती थी। वह दया के वशीभूत होकर कुछ फल तोड़कर और पत्तो के दोने बना कर सरोवर से जल भरकर तपस्वी के पास रख देती थी। जिसके सहारे तपस्वी जीवित था।
धीरे-धीरे उसकी तपस्या और भी सघन हो गई। फल बिना खाए ही पड़े रहने लगे, जल भी दोनो में रखा हुआ ही गंदा हो जाता था। न उसे याद रही भूख की और न प्यास की। तपस्वी की हालत देखकर लकड़ियां बीनने वाली युवती बड़ी दुखी और उदास होती, लेकिन कोई उपाय भी न था।
एक दिन युवती चली गई। कई वर्ष बीतते गये और एक दिन तपस्वी की तपस्या पूरी हुई। प्रसन्न होकर इंद्रदेव प्रकट हो गये और कहा, हे तपस्वी! स्वर्ग के द्वार तुम्हारे स्वागत के लिए खुले हैं।
तपस्वी ने आंखें खोली और कहा, स्वर्ग की अब मुझे कोई जरूरत नही है।
तब इन्द्रदेव ने कहा, मै तुम्हे मोक्ष प्रदान करता हूँ।
तब तपस्वी ने कहा, नही! मोक्ष का भी मैं क्या करूंगा।
इंद्रदेव तपस्वी के जवाब से प्रभावित होकर उनके चरणों में सिर झुकाने को ही थे कि उन्होने सोचा तपस्या का अंतिम चरण हो गया, जहां मोक्ष की आकांक्षा भी खो जाती है, इसलिए झुकने से पहले उन्होने पूछा, मोक्ष के पार तो कुछ भी नहीं है, फिर तुम क्या चाहते हो?
तपस्वी बोला, कुछ भी नही, वह लकड़ियां बीनने वाली युवती कहां है, वही चाहिए।
सभी के सामने वही विकल्प है। या तो उन सुखो को चुनो जो क्षणभंगुर हैं या उसे चुनो जो शाश्वत है या तो शाश्वत को गंवा दो क्षणभंगुर के लिए या क्षणभंगुर को समर्पित कर दो शाश्वत के लिए। अधिकतम लोग वही चुनते है, जो तपस्वी ने चुना। ऐसा मत सोचना कि तुमने कुछ अन्यथा किया है। चाहे इंद्रदेव तुम्हारे सामने खड़े हो या न खड़े हो, चाहे किसी ने स्पष्ट स्वर्ग और पृथ्वी के विकल्प सामने रखे हो, न रखे हो, विकल्प वहां है।
जो एक को चुनता है, वह अनिवार्यतः दूसरे को गंवा देता है। जिसकी आंखें पृथ्वी के नशे से भर जाती हैं, वह स्वर्ग के जागरण से वंचित रह जाता है और जिसके हाथ पृथ्वी की धूल से भर जाते हैं, स्वर्ग का स्वर्ण बरसे भी तो कहां बरसे, हाथों में जगह नहीं होती। हाथ खाली चाहिए तो ही स्वर्ग उतर सकता है। आत्मा खाली चाहिए तो ही परमात्मा विराजमान हो सकता है।
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