अरे ओ, मन मेरे अब तक भटक रहा था।
तृष्णा का भाव लिए हृदय पटल पर।
कुछ, जीवन से रक्खे हुए लगाव अधिक ।
ओ पथिक, तेरे मन में भ्रम का भाव अधिक ।
मैलापन मन की लोभ-लालसा, अब तो इसे भूला ले।
चलने को उलटे बेताब, धारा का बहाव अधिक है।।
दुर्गम पथ जीवन का, कांटे अहंकार के उलझे।
आगे पथ पर लोभ का कंकर-पत्थर भी बिखरा।
अपने-पन की जो लगी हृदय में वेगवती तृष्णा।
उलझे हो मानव होकर, तेरा निज स्वभाव नहीं निखरा।
चलना है जो आगे, जीवन गीत के स्वर भाव से गा ले।
चलने को उलटे बेताब, धारा का बहाव अधिक है।।
मन मेरे तुम आशाओं के झुले-झुले, विस्मय के संग।
मन के किसी कोने में अभिलाषा के भाव विशेष।
साथ करने को बेताब, दुविधाओं के उलझे कई रंग।
किंचित चिंतन कर लो, क्या बच पाएगा आगे शेष।
ओ मन निर्मल रहने को, समय का साथ निभा ले।
चलने को उलटे बेताब, धारा का बहाव अधिक है।।
अब भी संभलो, जीवन वैभव का रसास्वाद कर लो।
समय केंद्र पर तुम ऐसे ही व्यर्थ नहीं अड़ंगे डालो।
कहीं लहरों में मत खो जाना, जीवन नव गीत बना लो।
मानव हो मानवता के गुण अब हृदय कुंज में पालो।
तुम कल तक तो भटके थे, देखो भी पांव के छाले।
चलने को उलटे बेताब, धारा का बहाव अधिक है।।
अरे ओ, मन मेरे अब तो वृथा नहीं भटको पथ पर।
बतलाओगे मानव नित उद्देश्य, आगे जो कर्म करोगे?
जीवन पथ पर फैलाओगे प्रकाश, ऐसा क्या धर्म करोगे?
कर लोगे जीवन से संसर्ग, या व्यर्थ अनुचित भरम करोगे?
अब संभलो भी पथ पर , पी लो जीवन रस के प्याले।
चलने को उलटे बेताब, धारा का बहाव अधिक है।
– मदन मोहन ‘मैत्रेय’
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