अब तक भिन्न नहीं पड़ा है पर दृश्य।
चलता छल तब भी था, अब भी है।
कौरव का दल तब भी था, अब भी है।
कुरुक्षेत्र का रण तब भी था, अब भी है।
जीवन रण द्वंद्व भाव से घिरा हुआ है।
कहता हूं, गीता के गर्भित उच्चारित वाक्य।।
हे पार्थ, बन सामर्थ्य शील, करो पुरुषार्थ।
शब्द है सत्य गीता के शब्दों का निहितार्थ।
फिर तो, कौरव सा संशय का होता घात।
रण भूमि का धर्म यही, यही कहूंगा बात।
हृदय पटल पर कब से द्वंद्व छिड़ा हुआ है।
कहता हूं, गीता के गर्भित उच्चारित वाक्य।।
तुम सामर्थ्यवान हो, गांडीव उठाओ तो।
रण भूमि जीवन का, कौशल दिखलाओ तो।
शत्रु दल में हो हाहाकार, वाण चलाओ तो।
है रण भूमि कुरुक्षेत्र, वीरोचित धर्म निभाओ तो।
आज दु:शासन है कई, जीवन इनसे घिरा हुआ है।
कहता हूं, गीता के गर्भित उच्चारित वाक्य।।
हो जीवन का ध्येय, धर्म की ध्वजा उठाओ।
तुम भी मानव हो, जरा तो पार्थ बन जाओ।
सारथी धारण करने को धर्म, केशव को ले आओ।
आज जो चलता है प्रपंच, भीषण प्रहार चलाओ।
मानव मर्यादा है रिक्त, दु:शासन सिर फिरा हुआ है।
कहता हूँ, गीता के गर्भित उच्चारित वाक्य।।
तुम बनो पार्थ, जीवन उद्देश्य पुनीत बना लो।
कुरुक्षेत्र सा कलुषित है रण, गांडीव उठा लो।
आज अघोषित पाप की जय, सत्य के वाण संभालो।
कर लो कर्तव्य निहितार्थ, मानव धर्म को पालो।
आज तो शकुनी सा चाल चहुँ दिश छिड़ा हुआ है।
कहता हूं, गीता के गर्भित उच्चारित वाक्य।।
– मदन मोहन ‘मैत्रेय’