मिट्टी के मन (कहानी) | धर्मेन्द्र राजमंगल

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बहती नदी को रोकना मुश्किल काम होता है। बहती हवा को रोकना और भी मुश्किल। जबकि बहते मन को तो रोका ही नही जा सकता। गाँव के बाहर वाले तालाब के किनारे खड़े आमों के बड़े बड़े पेड़ों के नीचे बैठा लड़का मिटटी के बर्तन बनाये जा रहा था।
तालाब की तरफ से आने वाली ठंडी हवा जब इस लडके के सावले उघडे बदन से टकराती तो सर से पैर तक सिहर उठता लेकिन उसे इस हवा से आनंद भी बहुत मिलता था। उसके बनाये चिकनी मिटटी के बर्तन उस हवा से आराम से सूख जाते थे।
इस लड़के का नाम गोविन्द था। पहले इसके पिता इस काम को करते थे लेकिन पिता की मृत्यु के बाद गोविन्द खुद इस काम को करने लगा। बारहवीं की पढाई भी बीच में ही छूट गयी। तालाब के किनारे मिटटी के बर्तन बनाने के लिए तालाब का यह किनारा सबसे उपयुक्त था।
तालाब से निकली मिटटी बर्तनों के लिए अच्छी थी। साथ में पानी की भी बहुतायत थी। लेकिन इस सब के अलावा भी एक कारण था जो गोविन्द को इस तालाब के किनारे खींच लाता था। यहाँ कुछ ऐसा था जो गोविन्द को अपनी और खींचता रहता था।
सुबह और दोपहर को यहाँ से गुजरने वाले लड़कियों के झुण्ड में सब लडकियों के सलवार शूट एक जैसे होते थे। दुपट्टा ओढने का तरीका एक जैसा था। सर के बालों को गूथ कर चोटी बनाना भी एक जैसा था लेकिन उस झुण्ड में एक लडकी ऐसी थी जो सबसे अलग थी।
उसका हँसना। उसकी चितवन। उसकी चाल सब कुछ अन्य लडकियों से अलग था। गोविन्द तो बीस लड़कियों की हंसी से उसकी हंसी को अलग कर पहचान लेता था। उसके गुजरते समय होने वाली पदचाप को अपने दिल की धडकन से महसूस कर लेता था। उस लडकी की चितवन तो जैसे गोविन्द के लिए वरदान जैसी थी।
बीस बरस की उम्र का गोविन्द देखने में सुघड़ लगता था। सांवला रंग। भरा हुआ जवान बदन। मर्दाना नैन नक्स सब कुछ गोविन्द को छैल छबीला दिखाता था। जाति से वेशक कुम्हार था लेकिन गाँव के ठाकुरों के लडके उसे देख लजाते थे। दोपहर का समय हो रहा था।
गोविन्द ने पेड़ की जड में रखी दीवार घड़ी देखी तो पता पड़ा एक बजने वाला है। झटपट बर्तन बनाना छोड़ तालाब में हाथ मुंह धो लिए। टूटे हुए शीशे के कांच में अपना मुंह देखा। बालों को हाथों से ठीक किया और फिर से मिटटी के बर्तन बनाने चाक पर बैठ गया।
थोड़ी ही देर में कॉलेज के लडके लडकियों के हँसने बोलने के स्वर सुनाई देने लगे। गोविन्द के दिल ने धडाधड धडकना शुरू कर दिया। झुंडों की शक्ल में लडके लडकियाँ सडक से गुजरने शुरू हो गये। गोविन्द की आँखों एक अनजान लडकी को झुंडों के बीच में ढूंढने लगी। थोड़ी ही देर में गोविन्द की नजर उस लडकी पर पड़ी जिसे देखे उसके दिल को सुकून मिलता था।
अपनी सहेलियों से बात करती चल रही उस लडकी की बात ही कुछ अलग थी। हल्के गोर रंग में रंगी सूरत। छोटी पतली नाक और उसमे पहनी गोल नथुनी। पतले गुलाब की पंखुड़ियों से होंठ।
काली काली बड़ी बड़ी आँखें और आँखों में लगा घरेलू बड़ा बड़ा काजल। काली सुनहरी मिक्स जुल्फें जो गूथ कर चोटी के रूप में बंद थीं। भरा हुआ सुतवां बदन जो गले से एड़ी तक कपड़ो में ढका हुआ था।
गोविन्द के हाथ चाक पर रखे थे लेकिन नजरें उस चितचोरनी पर लगी हुईं थी। कितना भी देखता लेकिन दिल न भरता था। उस लडकी को देख कभी वासना मन में न आई लेकिन फिर भी उसे अपने सामने रखने का दिल करता था। लडकी भी पूरी पगली थी।
गोविन्द उसे कितना ही देखता रहे लेकिन वो शायद ही कभी गोविन्द को देखती थी। किन्तु आज का मामला अलग था। उस लडकी की एक सहेली की नजर गोविन्द पर पड़ी तो झट से अपने झुण्ड को बता दिया।
झुण्ड की सारी लडकियाँ उस लडकी सहित गोविन्द को देख बैठी। इतनी नजरों में से गोविन्द ने केवल उस लडकी की कजरारी नजरों को ही अपनी आँखों के लिए चुना।
नजर से नजर मिली थी। भरपूर मिली थी। गोविन्द तो मानो मालामाल हो गया था लेकिन झुण्ड की लडकियाँ गोविन्द की इस हरकत पर खिलखिला कर हँस पड़ी। जिस लडकी को गोविन्द देख रहा था वो थोडा मुस्कुरा कर सिटपिटा गयी।
झुण्ड गोविन्द की नजरों से आगे बढ़ चला लेकिन झुण्ड की लडकियाँ उस लडकी से कुछ मजाकें करती जातीं थी। शायद गोविन्द के उसकी तरफ देखने को ही बातों का मुद्दा बनाया होगा। गोविन्द दूर जाती उन लडकियों में से सिर्फ एक को अभी भी देख रहा था। झुण्ड की लडकियाँ मुड़-मुड़ कर गोविन्द को देखती फिर उस लड़की को देखतीं।
लड़कियों का झुण्ड काफी आगे जा चुका था लेकिन गोविन्द की नजरें अभी भी उसी लड़की पर लगीं थीं। वो लड़की भी मुड़ -मुड़ कर कई बार गोविन्द को देख चुकी थी। गोविन्द उस लड़की को तब तक देखता रहा जब तक वो आँखों से पूरी तरह ओझल न हो गयी। गोविन्द के लिए ये सब रोज का काम था और ये सब काफी महीनों से चल रहा था।
गोविन्द को तो ये तक पता नही था कि क्यों वो उस लड़की को अपना दिल दे बैठा। झुण्ड में तो और भी लडकियाँ होतीं थीं लेकिन वही अकेली लड़की मन को क्यों भा गयी।
रोज ऐसा ही चला रहा लेकिन एक दिन वो झुण्ड में चलने वाली लड़की झुण्ड से निकल तालाब के किनारे खड़े आम के पेड़ों की तरफ बढ़ने लगी जहाँ गोविन्द बैठा उसे देख रहा था। उस लडकी को अपनी ओर आते देख गोविन्द की सांसे रुकने को हुईं।
लगता था जैसे वो कोई सपना देख रहा हो। लेकिन जब होश आया तो लड़की सामने आ पहुंची थी। गोविन्द का मन हुआ कि उठकर कहीं भाग जाय लेकिन टांगों में तो खड़े होने तक की शक्ति नही रही थी। उस अनजान पहचानी सी लड़की का एकदम से ऐसे आना गोविन्द की सुध बुध खो गया।
गोविन्द उस लड़की से अपना ध्यान हटा चाक को घुमाने लगा लेकिन आधी नजर उस लड़की के पैरों पर थी। साफ सुथरे कोमल पैरों में तो और ज्यादा आकर्षण था। पैरों की पतली पतली उँगलियाँ और उनके लम्बे लम्बे नाख़ून। उन नाखूनों पर लगी नाखूनी तो गजब ढा रही थी।
लेकिन पैरों में गोविन्द का नजरें लगाने का दूसरा मकसद यह भी था कि कहीं लड़की लौटकर न चली जाय। लड़की चुप खड़ी थी कि सड़क पर खड़े झुण्ड के खिलखिलाने की आवाज आई। गोविन्द मन ही मन मुस्कुरा पड़ा। उसने नजर उठाकर पास खड़ी लड़की को देखा।
लडकी एकदम से बोल पड़ी, “मुझे एक दर्जन दीवला (मिटटी के दीपक) चाहिए।” उस लडकी की मीठी सुरीली आवाज गोविन्द के कानों में घुल गयी। आज पहली बार गोविन्द ने इस लडकी का साफ साफ बोलना सुना था।
उसने झट से बढिया से एक दर्जन दीवला उठाकर उस लडकी की तरफ बढ़ा दिए लेकिन एक भी शब्द न बोल सका। लड़की ने अपने किताबों के बैग में दीवला रख लिए और झिझकते हुए बोली, “कितने रूपये हुए इनके?” गोविन्द को उस लड़की का इस तरह भाव पूंछना बहुत अखर।

मन तो करता था गाल पर एक थप्पड़ रसीद कर दे और बोले कि तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझसे भाव पूंछने की? अरे पगली मैं तुमसे पैसा लूंगा?” लेकिन ऐसा न कर चुप ही रहा।
सड़क पर खड़े लडकियों के झुण्ड में से एक लड़की ने जोरदार आवाज में गोविन्द के पास खड़ी लड़की से कहा, “सुमनिया हम तो चलते हैं तू आराम से आ जाना।” इतना कह झुण्ड की लड़कियाँ खिलखिला कर हँस पड़ी और आगे बढ़ गयीं।
गोविन्द को सामने खड़ी लड़की का नाम पता चल चुका था। वो बरबस ही बोल पड़ा, “तो तुम्हारा नाम सुमनिया है?” लड़की हडबडा कर बोल पड़ी, “नही नही। मेरा नाम सुमन है। वो लड़कियाँ मेरा नाम बिगाड़ कर बोलती हैं। लेकिन तुम्हें मेरे नाम से क्या मतलब? जल्दी से दीवला के पैसे बताओ। मुझे देर हो रही है।”
गोविन्द को अगर सुमन गोली भी मार देती तब भी दीवलों के पैसे न लेता। बोला, “नही मैं इसके पैसे नही ले सकता। भला एक दर्जन दीवलों के भी कोई पैसे होते हैं। तुम इन्हें ऐसे ही ले जाओ।” सुमन को बहुत हैरत हो रही थी। भला कोई अनजान लड़का उसे मुफ्त में सामान क्यों देने लगा? बोली, “तुम मुझसे पैसे क्यों नही लेते? नही लोगे तो मैं दीवला भी नही लेती।”
इतना कह सुमन ने अपने बैग को आगे किया मानो अभी दीवलों को निकाल कर फेंक देगी। गोविन्द हड़बड़ा गया और बिना कुछ सोचे ही बोल पड़ा, “तुम्हें मेरी कसम जो इनको न ले जाओ या मुझे पैसे दो।” सुमन के हाथ वही के वही रुक गये। पता नही क्यों वो गोविन्द की कसम से रुक गयी थी। लेकिन उसे गोविन्द के इस तरह कसम खिलाने पर हैरत भी होती थी।
सुमन बेसुध हो बोली, “अगर मुफ्त में दीवला देने की बात किसी को पता चली तो क्या सोचेगा? मुझे बदनामी न मिलेगी? वैसे ही लोग इतनी बात बना देते हैं।” गोविन्द पूरा गोविन्द था। बिना सोचे समझे बोल पड़ा, “किसी को बतायेगा कौन?”
पगला क्या बोल गया उसे खुद नही पता था। सुमन के होठों पर मुस्कुराहट थी और नजरों में तिरछापन। गोविन्द चोरी चोरी देखता और जब भी देखता सुमन नजरों को जमीन में बिछा देती और जब न देखता तो गोविन्द को देखती। उस वावली लड़की का दिल गोविन्द के दिल से मिल सा गया।
सुमन को देर हो रही थी लेकिन वो गोविन्द के पास से जाना भी नही चाहती थी। सुमन अचानक से बोल पड़ी, “तुम रोज मेरी तरफ क्यों देखते रहते हो? पता है सारी लड़कियाँ मेरी हंसी बनाती हैं।”
सुमन की बातों में गुस्सा नही था। ये तो प्यार भरी मीठी शिकायत थी। गोविन्द का मन रंगरसिया हो उठा। वो सुमन का मन जानने के लिए यूं हो बोल पड़ा, “ठीक है अब नही देखा करूंगा।” सुमन विकल हो गयी। गोविन्द अब उसे नही देखा करेगा। यह तो बहुत बुरा होगा।
हड़बड़ा कर बोली, “नही नही मैंने मना कब कहा। मेरा मतलब। कोई किसी की तरफ नही देखे यह कैसे हो सकता है। जब तुम यहाँ रहते हो और मैं यहाँ से गुजरती हूं तो नजर तो पड़ेगी ही।” वावली को खुद पता नही था कि क्या कह रही है। खुद ही शिकायत और खुद ही सिफारिश।
गोविन्द का पूरा यकीन हो गया कि सुमन उसे चाहती है। दिल झूम उठा। लगा कि दुनिया का खजाना उसे मिल गया है। मन की मुराद मिल गयी है। जैसे अब दुनिया में कुछ ऐसा नही बचा जो गोविन्द को न मिला हो।
सुमन उतनी ही गोविन्द की दीवानी थी जितना गोविन्द उसका। दोनों की नजरें एक दूसरे से सब कुछ कह चुकी थीं। सुमन गोविन्द को मुड़-मुड़ कर देखती हुई घर को चली गयी। गोविन्द उसे जाते देखता रहा। उसे लगता था कि सुमन के साथ उसकी जान चली गयी है लेकिन उस जान को निकलते देख भी मुस्कुरा कर जाते देखता रहा।
दिन गुजरने के साथ मोहब्बत आगे बढ़ती चली गयी। सुमन के साथ जाने वाले लड़कियों के झुण्ड को इन दोनों की मोहब्बत के बारे में सब कुछ पता था। परवान चढ़ती मोहब्बत के हजार दुश्मन होते हैं और हजार दुश्मनों का साथ देने वाले और हजार लोग।
सुमन की जान गोविन्द में बसती थी और गोविन्द की सुमन में लेकिन दोनों की राह में एक रोड़ा था। मोहन जाति से कुम्हार था और सुमन ब्राह्मण। दोनों का मेल कम से कम इस इलाके में तो सम्भव नही था।
किसी उच्च जाति की लडकी का किसी निम्न समझी जाने वाली जाति के लडके के साथ चक्कर होना बहुत बड़ी बात थी। बात फैली तो जंगल की आग हो गयी। मोहल्ले से गाँव तक सब के सब सकते में थे।
सुमन की माँ ने जिस दिन ये बात सुनी तो बौखला गयी। उसने सुमन को कमरे में बंद कर पशुओं के मानिंद पीटा। साथ ही जान से मारने तक की धमकी दे डाली। ग्यारहवीं पास कर चुकी सुमन का पढना एकदम से बंद कर दिया गया। अब सुमन घर की दहलीज पर भी खड़े होने का अधिकार न रखती थी।
बाहर निकलना तो मानो आग में कूदना था। सुमन के न आने से गोविन्द अधमरा सा हो गया। दिन रात बीमारों की तरह सुमन की यादों में खोया रहता था लेकिन उन्ही दिनों गोविन्द पर एक और आफत आ गिरी।
गाँव के उच्च बर्ग के ठेकेदारों ने शाम के अँधेरे में गोविन्द को जमकर धुना और उसी रात गाँव से भाग जाने का फैसला भी सुना दिया। गोविन्द खुद तो नही जाना चाहता था लेकिन उसकी माँ ने कसम खिला बाहर भेज दिया।
एक महीना भी न हुआ कि सुमन की शादी तय कर दी गयी। सुमन खूब रोई लेकिन कौन सुनता। कुछ ही दिनों में शादी हो ससुराल चली गयी। पन्द्रह दिन भी न हुए की ससुराल से खबर आई कि सुमन ने कमरा बंद कर खुद को पंखे से लटका लिया।
हर कोई सकते में था। जिस दिन गोविन्द को यह सब खबर चली तो चीख चीख कर रोया। उसका दिल फटा जाता था। अब तक तो सुमन को एक बार देखने के लिए जिन्दा था लेकिन अब क्यों जिए। एक दिन उसने भी रेल की पटरी पर खड़े हो खुद के टुकड़े टुकड़े कर लिए और उफ़ तक न की।
दोनों का मिलन इस दुनिया में नही तो किसी और दुनिया में होना था। तालाब आज भी वैसा ही है। बड़े बड़े आम के पेड़ भी बैसे ही खड़े हैं। तालाब की तरफ से उठने वाली हवा भी उतनी ही ठंडी बहती है लेकिन आज कोई गोविन्द मिटटी के बर्तन बनाते वक्त उस हवा से सिहरता नही है।
लड़कियों के झुण्ड आज भी किल्कोरियां करते वहां से गुजरते हैं लेकिन उनमें सुमन का कोई नामोनिशान नही मिलता। न ही किसी लड़की में वो सुन्दरता जिसे देख फिर कोई गोविन्द पैदा हो सके।
सब कुछ वही था लेकिन फिर भी कुछ नही था। उस तालाब की सौंधी मिटटी में एक मार्मिक कहानी छुपी थी, लेकिन पढ़ता कौन। ये तो उस दिन ही पढ़ी जाएगी जिस दिन फिर कोई गोविन्द उस मिटटी के बतर्न बनाएगा। जिस दिन फिर कोई सुमन उससे उस मिटटी के दीवले खरीदेगी। तब तक यह कहानी मिटटी के मन में दफन रहेगी।

[समाप्त]

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