
ज़मीन के हाथों की लकीर जब उकेड़ी गयी
कहीं लाश,कहीं लहू,कहीं सिसक पाई गयी
आसमान भी कोई बहुत दूर तलक न था
उसके दामन में भी दुखती नब्ज़ पाई गयी
सरफिरे हवाओं के घुमड़ते उड़ते लटों में
ग़ुमनाम स्याह रातों की दास्तान पाई गयी
चाँद के पूरे शबाब का जब नक़ाब हटा तो
अमावस के परछाई की ज़ुबान पाई गयी
सूरज के तेवर सारे नरम पड़ गए यकायक
शोलों में जलाने की गुनाह जब पाई गयी
लेखक सलिल सरोज के बारे में संक्षिप्त जानकारी के लिए क्लिक करें।
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