रोज ढूँढता हूँ तुम को

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रोज ढूँढता हूँ तुम को,
रोज गुम हो जाती हो..
क्या कहूँ तुम्हे..
वरदान, अभिशाप
एक अनउतरीत सवाल
अधूरा गीत,अधूरा सच
क्षितिज,धरती,आकाश
मिथ्या,अटल विश्वास
गहरा द्वेष,असीम प्रेम
खुली आँखों के ख्वाब

कवि की कल्पना
जेहन में अचानक झांकती
कविता के शब्द ..
पेड़ पर चहचहाते पंछी
पत्तियों की सरसराहट
टहनियों की हलचल
समंदर का किनारा
जिस से  लहरें टकराती हैं
और लौट आती हैं
मंदिर में सुनाई दे वाली
मधुर घंटी की आवाज
जो तृप्त करती है आत्मा को,
या एक जीवन्त पल||

नहीं जानता हश्र क्या होगा ???
इसीलिए रोज ढूँढता हूँ तुम को
की जिन्दगी को एक ख़ूबसूरत गीत बनाऊंगा
पूरा ना कर सका ,ना सही
अधुरा ही तुम्हारे साथ गुनगुनाउंगा…

“अम्बरीष”

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