बस एक हमें ही खबर नहीं होती है (गज़ल) | सलिल सरोज

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bas ek hame khabar nahi
इस कागज़ी बदन को यकीन है बहुत
दफ्न होने को दो ग़ज़ ज़मीन है बहुत
तुम इंसान हो,तुम चल दोगे यहाँ से
पर लाशों पर रहने वाले मकीं* हैं बहुत
भरोसा तोड़ना कोई कानूनन जुर्म नहीं
इंसानियत कहती है ये संगीन है बहुत
झुग्गी-झोपड़ियों के पैबन्द हैं बहुत लेकिन
रईसों की दिल्ली अब भी रंगीन है बहुत
वो बरगद बूढ़ा था,किसी के काम का नहीं
पर उसके गिरने से गाँव ग़मगीन है बहुत
बस एक हमें ही खबर नहीं होती है
वरना ये देश विकास में लीन है बहुत
*मकीं-मकाँ में रहने वाला

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