श्रीमति तारा सिंह
नवी मुम्बई.
दलित से अभिप्राय उन लोगो से है जिन्हे जाति या वर्णगत भेदभाव के कारण सदियों से स्वस्थ एवं समुननत सामाजिक जीवन से वंचित, तिरस्कृत और समाज के हाशिये पर उपेक्षित जीवन जीने के लिए विवश रखा गया है। इतिहास के पन्नों को पलटने से यह सापफ पता चलता है कि भारतीय सभ्यता के निमार्ता वैदिक जन थे, जिनका दर्शन ब्रह्रमवाद रहा, जिसके कारण दलित वर्ग सदा संघर्षशील रहे। जरूरत की बुनियाद सुविधओं के लिए यह समाज तरसते और तड़पते जीता आया। इनकी व्यथा और कथा कभी किसी ने सुनने और समझने की जरूरत महसूस नही की। तभी ईश्वर के वरदान स्वरूप इनके जीवन में क्रान्ति सूरज बनकर बाबा अम्बेडकर अवतरति हुए और जीवन भर गरीब, दलित, हताश तथा व्यवस्था के सतायें लोगो के लिए स्वतन्त्राता की सच्ची लड़ाई लड़े। बाबा अम्बेडकर ने अंध्विश्वास, विकृत, रूढि़-परम्पराओं, देवी-देवताओं से संबिन्ध्त आडम्बरों, भाग्य, अवैज्ञानिक सोच तथा उन सभी बातों को नकारा, जो मनुष्य को बर्बरता की ओर ले जाता है। लेकिन अपफसोस ऐसे मसीहा, जो ईश्वर के खिलापफ रहे, आज उन्हे भगवान बनाकर उनकी तस्वीर को पफूल-मालाऐं चढ़कार, उनके आगे लोेग भजन-कीर्तन करते है। वे यह नही सोचते कि इससे बाबा साहब की आत्मा को कितनी ठेस पहँुच रही होगी। उनकी सच्ची श्रद्वाजंली तो तब होगी जब उनके वैचारिक आन्दोलन की मशाल को लेकर दलित आगे बढ़े।
बाबा अम्बेडकर दलित समुदा की सामाजिक, आर्थिक, संास्कृतिक एवं राजनैतिक विकलता को संबल देने, दिल से नही, दिमाग से भी लड़े। उनके द्वारा उद्घोषित सामाजिक क्रान्ति जितनी भौतिक और संघर्ष की थी, उतनी ही विचारों की भी थी। शिक्षा, समता, बंध्ुता, स्वतन्त्राता से दलितों की भावना को आन्दोलित करने का श्रेय उन्ही को जाता है। उन्ही के प्रयास का पफल है जो दलित ध्ीरे-ध्ीरे सही जीवन के अंध्ेरे का पारकर अब प्रकाश की ओर बढ़ रहे है। बाबा साहेब का कार्य और जीवन संघर्ष का आलेख इतना उफँचा है कि जिससे प्रेरणा पाकर हर कोई चेतनावान हो जाता है। उनके व्यक्तित्व में जड़ स्थिति के विरूद्व तनकर खडे़ होने की अदम्य जिजिविषा और उर्जा, अनायास ही प्राप्त होती है।
यह विडम्बना है कि जो वैदिक काल में ट्टग्वेद के पुरूष सूक्त से वर्ण व्यवस्था चली, वह आज भी जारी है। जाति विशेष में जन्में लोग पूजा-स्थलों पर कुंडली मारकर बैठे हुए है। उनकी जाति और परिवार का आरक्षण आज भी बना हुआ है। जिसके मिटने का आसार निकट भविष्य में तो नही दिखता। इन मंदिरों से मिलने वाली करोड़ों की आय पर ऐन-वैन प्रकारेण अपना दखल बनाये रखे है। आज भी इन मंदिरो में वाल्मिकी परिवारों का घुसना निषेध् है। सामाजिक न्याय और अध्किारो से वंचित यह दलित समुदाय देश की स्वतन्त्राता प्राप्ति के बाद भी हिन्दू ध्र्म की विभेदकारी वर्ण व्यवस्था एवं जातिवादी मक्कारियों के कारण सिर पर मैला ढ़ोने के लिए मजबूर है। बाबा अम्बेडकर के प्रयास और संघर्ष से इस व्यवस्था में कमी तो आई, लेकिन पूरी तरह आज भी समाप्त नही हो पाई है।

बाबा अम्बेडकर ने अंध्विश्वास, विकृत रूढि़यों, परम्पराओं, देवी-देवताओं से संबिन्ध्त आडंबरो, भाग्य सोच तथा उन सभी बातो को नकारा। कहा ऐसे सोच के दिये मनुष्य को मनुष्य नही रहने देता, बल्कि उसे बर्बरता की हद तक पहँुचा देती है। बाबा अम्बेडकर केवल दलितो के शुभचिन्तक थे ऐसी बात नही है। उन्होने समाज के उन सभी वर्गो के लिए जो दबे-कुचले, दूर-दराज में नरक जीवन बीता रहे है, उन सबो को समाज की मुख्यधरा में लाने के लिए पुरजोर संघर्ष किया, बावजूद ये आदिवासी कुछ अन्य समाजसेवी के गलत बहकावे में आकर बाबा साहब को अपना हितैषी मानने से इनकार करते है।
अपने जीवनकाल में गरीबी का दंश, तिरस्कार, उपेक्षा आदि को भोगे गये यर्थाथ को अनेकों दिलत लेखक-लेखिकाओं ने अपनी आत्मकथा में उद्घाटित किया है। जैसे भगवान दास का, ‘मै भंगी हँू’, कौशल्या वैसन्ती का ‘दोहरा अभिशाप’, ओमप्रकाश वाल्मिकी की ‘जूठन’, लक्ष्मण माने का आत्मकथा उपन्यास ‘उफपरा’। हिन्दी में ‘पराया’ को तो साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी नवाजा गया। प्रतिबंधें, अवरोधें, निषेधें के बीच जीने को अभ्यस्त दलित लेखक की विद्या चाहे जिस रूप में सामने आई हो, भारतीय समाज व्यवस्था के परिवर्तन का द्योतक है और स्वर्ण समाज पर जारी श्वेत-पत्रा।
आश्चर्य होता है जो भारतीय समाज सभी प्राणियों में एक ही परम तत्व के दर्शन करने का दंभ भरता है, वह गुण और कर्म के आधर पर आधरित वर्ण व्यवस्था का इतना कटटर कैसे हो गया कि निम्न वर्ण या जाति में जन्म लेने वालों को समाज की मुख्य धरा से जुड़ना तो दूर अछूत मानकर छूना भी पाप समझता है। राजनीति के शीर्ष पर रहे बाबू जगजीवन राम, जो कि दलितो के विश्वसनीय नेता थे। उन्होने भीइन दलित वर्गो के लिए भारतीय समाज की सीढ़ीनुमा व्यवस्था को तोड़कर समतल राह बनाने की भरपूर चेष्टा की। पफलस्वरूप आज विकासरूपी आकाश मे ज्यादा तो नही, लेकिन जितने भी दलित स्वच्छंद विहार कर रहे है, उन्ही के प्रयास का पफल है।
कहते है कि राख के नीचे चिन्गारी ज्यादा दिनो तक दबी नही रह सकती, थोड़ी सी हवा मिलते ही शोला बनकर भभक उठती है। सो समय की गति के साथ सदियों से दबे-दुबके, गूँगे दलित भी अपने अध्किारों की माँग के आन्दोलन की धर को पैना करके अपना अस्तित्व बचाने के लिए खड़े हो चुके है। आखिर कब तक खुद को मलेच्छ, अछूत, दस्यु, दास जैसे गालीवाचक शब्दो से बुलवाते रहते। अब इनके जीवन का उद्वार। उसके लिए स्वंय बाबा अम्बेडकर हिन्दू वर्ण व्यवस्था का बहिस्कार करते हुए बौद्व ध्र्म को अपना लिए। यही कारण है कि दलित साहित्यकारों को बौद्व ध्र्म की वर्ण विहिन व्यवस्था में अपने लिए पर्याप्त संभावनाएँ दिखती है। मलयालम और तमिल समाज में तो दलितो का आन्दोलन कापफी हद तक हिन्दू विरोध्, ब्राह्रमण… और संस्कृत विरोध् पर आधरित प्रतीत होता है। ब्राहमण-अब्राहमण के कटटर भेदभाव से ग्रस्त इस दलित समाज के चिंतक कंचा इल्लÕया तो यहाँ तक घोषण करते है कि एक दिन भारत की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी बन जायेगीे और तब हिन्दू ध्र्म का नाश हो जायेगा। ऐसी सोच चिंताजनक है, भविष्य के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा।

ऐसे तो दलित साहित्य की शुरूआत संत परम्परा के कवियों द्वारा सदियों पहले हो चुकी थी। बाद में आध्ुनिक काल में प्रेमचंद, निराला प्रसाद, नागार्जुन आदि लेखको ने इस परम्परा को और समुद्व किया। लेकिन दलित अम्बेडकर की ही विचारधराओं की सराहना करते है, उन्हे मूल मानते है। बाबा की बातें 1920 से ‘मूकनायक’ पत्रा के माध्यम से लोगो तक पहुँचने लगी थी। उन्होने पत्रिका के माध्यम से कहा, भारत में सामाजिक गड़बड़ी का जड़ वर्ण व्यवस्था है, जो कि सहज समाप्त होगा। ऐसा तो नही लगता और जब तक यह समाप्त नही होगा, न तो जाति विवाद खत्म होगा, नही छुआछूत। यहीं से संगठित होकर दलित आन्दोलन की शुरूआत हुई और यही आन्दोलन बाद में जनसंघर्ष का रूप लिया और इन्ही जनसंघर्षो से दलित साहित्य या दलित विर्मश की परम्परा विकसित हुई।
कुछ बुद्विजीवियों का तो यहाँ तक मानना है कि भारत की लम्बी गुलामी का एक बड़ा कारण भारतीय समाज की रूढि़ग्रस्त, सड़ी-गली जाति व्यवस्था भी है। हमारे स्वतत्रांता पुरोधओ ने तो इस कलंक को मिटाने भारत संविधन में यह प्रावधन भी रखा। इस व्यवस्था में भारत में किसी भी नागरिक के साथ वर्णभेद करना अपराध् माना गया जायेगा तथा हरिजन और गिरिजन जाति को अनुसूचित जाति के रूप में सूचीबद्व किया गया। इसके परिणाम आज भारतीय भाषाओं में दलित साहित्य की नई प्रवृत्ति के विकास के रूप में आने लगे है, लेकिन अगर अगर दलित साहित्य का उद्देश्य जाति उन्मूलन करना है तो साहित्य सामाजिक टकराव का नही बल्कि दलित विमर्श पर होना चाहिए। तभी साहित्य और समाज दोनो का कल्याण होगा।