बात तब की है जब वह नौ साल का था और चाचा-चाची के यहाँ मंदिर मार्ग पर बने उनके सरकारी फ़्लैट में गर्मी की छुट्टियाँ बिताने आया था । चूँकि वह दोपहर में खूब सो लेता था , इसलिए रात का खाना खाने के बाद बारह-एक बजे तक आस-पास घूमने-टहलने की छूट उसने चाचा-चाची से ले रखी थी । एक रात वह घूमते-फिरते बिड़ला मंदिर के पीछे ‘ रिज ‘ के जंगल में जा निकला था । दरअसल वह बचपन से ही निडर था । भूत-प्रेतों के क़िस्से भी उसे नहीं डरा पाते थे । अकसर वह वीरान पगडंडियों पर अकेले ही घूमने निकल जाता था ।
उस रात भी यही हुआ था जब उसने पहली बार उस विशाल उड़न-तश्तरी को देखा था — पूर्णिमा की रात में चमकती हुई , बिड़ला मंदिर से भी दस गुना ऊँची , विशाल और भव्य । हैरानी की बात यह थी कि उसके उड़ने से कोई शोर नहीं हो रहा था , बल्कि रात का सन्नाटा और गहरा हो गया था । झींगुरों ने भी अपना गीत गाना बंद कर दिया था , और पहली बार वह अपने दिल की धड़कनें गिन सकता था । आकाश जैसे तारों के बोझ से नीचे झुक आया था । समय जैसे ठिठक कर वहीं रुक गया था । पर कुछ देर हवा में टँगी रह कर वह उड़न-तश्तरी ग़ायब हो गई थी — उसे मंत्रमुग्ध छोड़ कर ।
वह अगली रात फिर वहाँ आया , लेकिन उस रात उसे वह उड़न-तश्तरी नज़र नहीं आई । उसने भी हार नहीं मानी और वह उसकी खोज में हर रात वहाँ आने लगा — ‘ रिज ‘ के जंगल में , साँप-बिच्छुओं और बंदरों की परवाह नहीं करता हुआ । वह जैसे एक आदिम आकर्षण से खिंच कर वहाँ चला आता , और आख़िर अगली पूर्णिमा की रात में वह उड़न-तश्तरी उसे फिर नज़र आई थी । वह उतनी ही विशाल और भव्य थी और उसके आने में एक शोरहीन तेज़ी थी । उस घनी रात में थोड़ी देर आकाश में मँडरा कर वह ग़ायब हो गई थी — उसे रोमांच से सिहरता हुआ छोड़ कर ।
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