
जो देखूँ दूर तलक तो कहीं बियाबाँ , कहीं तूफाँ नज़र आता है
इस फ़िज़ा की मुस्कराहट के पीछे कोई श्मशान नज़र आता है
इंसानों ने अपनी हैवानियत में आके किसी को भी नहीं बख्शा है
कभी ये ज़मीं लहू-लुहान तो कभी घायल आसमाँ नज़र आता है
मशीनी सहूलियतों ने ज़िन्दगी की पेचीदगियाँ यूँ बढ़ा दी हैं कि
जिस इंसान से मिलो,वही इंसान थका व परेशान नज़र आता है
क़ानून की सारी ही तारीखें बदल गई हैं पैसों की झनझनाहट में
मुजरिमों के आगे सारा तंत्र ही न जाने क्यों हैरान नज़र आता है
किताबें,आयतें,धर्म,संस्कृति,संस्कार,रिवाज़ सब के सब बेकार
शराफत की आड़ में छिपा सारा महकमा शैतान नज़र आता है
बच्चों की मिल्कियत छीनके अपने उम्मीदों का बोझ डाल दिया
मेरी निगाहों में अब तो हर माँ-बाप ही बेईमान नज़र आता है
लेखक सलिल सरोज के बारे में संक्षिप्त जानकारी के लिए क्लिक करें।
व्हॉटसएप पर जुड़ें : उड़ान हिन्दी पर प्रकाशित नई पोस्ट की सूचना प्राप्त करने के लिए हमारे ऑफिशियल व्हाट्सएप चैनल की नि:शुल्क सदस्यता लें। व्हॉटसएप चैनल - उड़ान हिन्दी के सदस्य बनें
कॉपीराइट सूचना © उपरोक्त रचना / आलेख से संबंधित सर्वाधिकार रचनाकार / मूल स्रोत के पास सुरक्षित है। उड़ान हिन्दी पर प्रकाशित किसी भी सामग्री को पूर्ण या आंशिक रूप से रचनाकार या उड़ान हिन्दी की लिखित अनुमति के बिना सोशल मीडिया या पत्र-पत्रिका या समाचार वेबसाइट या ब्लॉग में पुनर्प्रकाशित करना वर्जित है।