अपवित्र

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सपना मांगलिक, आगरा (उ0प्र0)।

बहन बन जो दुलार देती तुमको
बेटी बन सोनचिरैया सी खुशियां बांटती
वह गृहलक्ष्मी घर संवारकर तुम्हारा
माँ बन स्तनों से ममता लुटाती
पिफर क्यों बंदिशों और बेडि़यों से जकड़ा उसे
क्यों नहीं बराबर मर्द और औरत का रिश्ता
क्यूँ दम्भी पुरुष समाज में दर्जा उसका नीचा
माना जाता क्यों उसे अपवित्र

क्यूँ हर दरगाह में औरतों का प्रवेश निषेध्
माँ का नाम बालक के लिए क्यों नहीं है वैध्
क्यों रज दौरान स्त्री मंदिर में नहीं कर सकती प्रवेश
कैसा ये दोगला समाज और कैसा है ये देश
क्या नहीं जानते मूर्खो ये रज नहीं है अपवित्रा

ईश्वर की प्रदान स्त्री  को नियामत है ये
इससे ही तुम जैसा पवित्र पुरुष माँ की कोख में
तथाकथित पवित्र अहंकारी शरीर का निर्माण करता
अपवित्र स्त्री देह से जन्मे तुम पिफर कहाँ रहे पवित्र

जिसके सीने से कतरा कतरा खून चूस बड़े होते हो
ताकतवर जिस्म का निर्माण कर मर्दानगी दिखाते हो
अरे दानवो शर्म करो ना कहो उस देवी को अपवित्र


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